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________________ ७० दशवैकालिकसूत्र किसी निमित्त को दोष न देते हुए सहन कर लेते हैं, वे पूर्वकृत कर्मों को क्षीण कर देते हैं।६२ दो परिणाम — पूर्वोक्त आचरण से कई निर्ग्रन्थ श्रमण, जिनके कर्मक्षय करने शेष रह गए हैं, वे पूर्वकृत शुभकर्मों के फलस्वरूप देवलोक में जाते हैं, किन्तु कई श्रमण, जो, नीरजस्क, अर्थात् आठों ही प्रकार के कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, वे उसके फलस्वरूप सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं। सांसारिक जीवों की आत्मा में कर्मपुद्गलों की रज, कुप्पी में काजल की तरह ढूंस-ठूस कर भरी हुई होती है, उसे पूर्ण रूप से सर्वथा बाहर निकालने (अष्टविधकर्म का आत्यन्तिक क्षय करने) पर आत्मा नीरज या नीरजस्क हो जाती है।६२ ताइणो सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता- जो साधक इसी भव में मोक्ष नहीं पाते, वे देवलोक में उत्पन्न होते हैं। वहां का आयुष्य पूर्ण करके अवशिष्ट कर्मों का क्षय करने हेतु मनुष्यभव में उत्पन्न होते हैं, जहां उन्हें इस प्रकार का उत्तम सुयोग मिलता है कि वे संसार से विरक्त होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्ष (सिद्धि) मार्ग को क्रमशः प्राप्त कर लेते हैं। निर्ग्रन्थ मुनि होकर षट्काय के त्राता (रक्षक) बन जाते हैं। यही इन विशेषणों का आशय है।४ ___ संयम और तप द्वारा कर्मक्षय क्यों और कैसे ?– जब षट्काय के रक्षक, निर्ग्रन्थ मुनि मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होते हैं, तब उनका उद्देश्य पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करना और नये आते हुए कर्मों को रोकना ही रह जाता है। क्योंकि सर्वथा कर्मक्षय किये बिना वे नीरजस्क और मुक्त नहीं हो सकते। कर्मक्षय करने के दो ही अमोघ उपाय हैं—संयम और तप। संयम से नये कर्मों का आश्रव रुक जाता है, अर्थात् संयम–संवर नूतन कर्मों के आश्रव (आगमन) को रोक देता है और तप पूर्वसंचित कर्मों को नष्ट कर देता है। संयम और तप के द्वारा असंख्य भवों में संचित कर्म कैसे नष्ट हो जाते हैं ? यह तथ्य उत्तराध्ययन में एक रूपक द्वारा समझाया गया है। जैसे किसी बड़े तालाब में पानी के आने के मार्ग को रोक देने पर, तथा पूर्वसंचित जल को उलीचने से और सूर्य का ताप लगने से वह जल क्रमशः सूख जाता है, उसी प्रकार पापकर्मों के आश्रव गमन) संयम (संवर) से रुक जाने पर बारह प्रकार के सम्यक तप से संयमी पुरुष के भी करोडों भवों में संचित कर्म निर्जीर्ण (क्षीण) हो जाते हैं। ___ तात्पर्य यह है कि-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपश्चरणरूप सिद्धिमार्ग पर आरूढ़ निर्ग्रन्थ श्रमण की आत्मा संयम और तप की साधना से क्रमशः सर्वथा विशुद्ध सर्वकर्मनिर्मुक्त हो जाती है। परिनिव्वुडा— परिनिर्वृत्त होते हैं—जन्म, जरा, मरण, रोग आदि से सर्वथा मुक्त होते हैं, भवधारण करने में सहायक अघाति और घाति सर्वकर्मों का सब प्रकार से क्षय करके जन्ममरणादि से रहित हो जाते हैं, सर्वथा निर्वाण (सिद्धि-मुक्ति) को प्राप्त होते हैं। ॥ तृतीय : क्षुल्लिकाचारकथा अध्ययन समाप्त ॥ ६२. (क) "आयावयंति गिम्हेसु" एवमादीणि दुस्सहादीणि (सहेत्तुय) (ख) आतापना-अकंडूयनाक्रोश-तर्जना-ताडनाधिसहनादीनि, दूसहाई सहिउं । . (ग) “परीसहा दुव्विसहा अणेगे....संगामसीसे इव नागराया ।' ६३. "णीरया नाम अट्ठ (विह) कम्मपगडी-विमुक्का भण्णंति ।" ६४. सिद्धिमग्गं दरिसण-नाण-चरित्तमतं अणुप्पत्ता । –अ. चू., पृ. ६४ -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६४ —जिन. चू., पृ. ११७ -उत्तराध्ययन अ. २१/१७-१८ —जिन. चूर्णि, पृ. ११७
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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