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________________ ६८ दशवैकालिकसूत्र अभिप्राय व्यक्त किया है।' जो वैसा न कर सकें, वे अन्य तप करें। हेमन्तऋतु (शीतकाल) में अपावृत अर्थात् प्रावरण (चादर) से रहित होकर अग्नि तथा निर्वात स्थान के आश्रय से दूर रह कर तपोवीर्यसम्पन्न श्रमण प्रतिमास्थित होने चाहिए तथा वर्षाऋतु में स्नेह सूक्ष्मजल के स्पर्श से बचने के लिए, वह पवनरहित आवासस्थान में रहें, ग्रामानुग्राम विचरण न करें। तथा उन्हें अपनी इन्द्रियों और मन को आत्मा में संलीन करके एक स्थान में स्थित होकर तपोविशेष में उद्यम करना चाहिए। सुसमाहित संयत- जो संयमी साधु-साध्वी अपने सिद्धान्तों के प्रति भलीभांति समाधानप्राप्त हैं अथवा मन में सुनिश्चित हैं, वे सुसमाहित हैं अथवा जिनका मन समाधि (अर्थात्-रत्नत्रय में अथवा श्रुत, विनय, आचार और तप रूप चार प्रकार की समाधि में) अचल है।६ ___परीषहरिपुदान्त- मोक्षमार्ग से विचलित या भ्रष्ट न होने तथा कर्मनिर्जरा के लिए जिनका समभाव से सहन करना आवश्यक है, उन्हें परीषह कहते हैं। वे क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि बाईस हैं। उन्हें रिपु (शत्रु) इसलिए कहा गया है कि वे दुर्दम हैं। उनके सम्पर्क से साधक के मोक्षमार्ग से च्युत होने की संभावना रहती है। किन्तु निर्ग्रन्थ इन परीषह-रिपुओं को भलीभांति जीत लेता है। ध्रुतमोह- मोह का अर्थ टीकाकार ने अज्ञान किया है, किन्तु मोह का अर्थ मोहनीय कर्म या मोह (आसक्ति) भी होता है। धुतमोहा का अर्थ है जिन्होंने मोह को प्रकम्पित कर दिया है, मोह की जड़ें हिला दी हैं। उसे विक्षिप्त या पराजित कर दिया है। सव्वदुक्खपहीणट्ठा- दुःख संसार में ही है, मोक्ष में नहीं। इसीलिए जन्म-मरणरूप संसार को दुःखमय बताया गया है। उन समस्त शारीरिक, मानसिक दु:खों के निवारण या विनाश के लिए महर्षि (अनन्तसुखमय मोक्ष के लिए) पराक्रम करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया है—'जन्म, जरा, रोग, मृत्यु आदि दुःख हैं। यह संसार ही ५५. (क) अगस्त्यचूर्णि, पृ. ६३ (ख) जिनदास चूर्णि, पृ. ११६ (ग) हारि. टीका, पत्र ११९ (घ) अगस्त्यचूर्णि, पृ. ६३ (ङ) 'सदा इंदिय—णोइंदिय पडिलीणा, विसेसेण सिणेहसंघट्टपरिहरणत्थं निवालतणगता वासासु पडिलीणा ण गामाणुगामं दुतिजति ।' -अ. चू., पृ. ६३ (च) वासासु पडिसंलीणा नाम (एक) आश्रयस्थिता इत्यर्थः । तवविसेसेसु उज्जमंति, नो गामनगराइसु विहरति । -जिन. चू., पृ. ११६ ५६. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्माराम जी), पृ. ५० (ख) दशवै. (आचारमणिमंजूषा), भा. १, पृ. १८९ 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः । -तत्त्वार्थसूत्र ९-८, उत्तरा. अ. २ . __ (क) 'धुतमोहा' विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः । मोहः अज्ञानम् । -हारि. टीका, पत्र ११९ (ख) मोहो—मोहणीयमण्णाणं वा । -अगस्त्य चू., पृ. ६४ (ग) धुयमोहा नाम जितमोहत्ति वुत्तं भवइ । —जिन. चूर्णि, पृ. ११७ (घ) 'जो विहुणइ कम्माइं भावधुयं तं वियाणाहि' —आचारांग नियुक्ति, गाथा २५१
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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