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________________ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा ६७ उनका आचरण नहीं करता है, वह पंचाश्रव-परिज्ञाता नहीं, अपितु बालकवत् अज्ञानी है।" "त्रिगुप्त'- मन, वचन और काया, इन तीनों की विषय-कषायों या पापों से रक्षा (गुप्ति) करना, क्रमशः मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति है। जिसकी आत्मा इन तीन गुप्तियों से रक्षित (गुप्त—निगृहीत) है, वह 'त्रिगुप्त' 'छसु संजया'- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय में संसार के समस्त प्राणी अन्तर्गत हैं। जो साधक इन षड्जीवनिकायों के प्रति मन-वचन-काय से सम्यक् प्रकार से यत (यवनाशील) है, संयमी है, वह संयत है। पंचनिग्गहणा- इन्द्रियां पांच हैं—श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, इन पांचों इन्द्रियों का दमन करने वाले साधक 'पंचेन्द्रियनिग्रही' कहलाते हैं। . धीरा : तीन अर्थ- (१) जो बुद्धि से सुशोभित (राजित) हैं, वे धीर हैं, अर्थात् —जिनकी प्रज्ञा स्थिर है, (२) जो धैर्यगुण से युक्त हैं और (३) जो शूरवीर (संयम में पराक्रम करने में वीर) हैं।२ उज्जुदंसिणो : ऋजुदर्शी : पांच अर्थ- (१) जिनदास महत्तर के अनुसार जो केवल ऋजु संयम को देखते (ध्यान रखते) हैं, (२) जो स्वपर के प्रति ऋजुदर्शी समदर्शी हैं, अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार—(३) ऋजुदर्शी —रागद्वेषपक्षरहित—(समत्वदर्शी), (४) अविग्रहगति-दर्शी, अथवा (५) मोक्षमार्ग-दर्शी । तात्पर्य यह है, कि जो मोक्ष के सीधे-सरल मार्गरूप संयम को ही उपादेयरूप से देखते हैं, एकमात्र संयम से प्रतिबद्ध हैं, वे ऋजुदर्शी हैं।४ निर्ग्रन्थों की ऋतुचर्या— ऋतुएं मुख्यतया तीन हैं—ग्रीष्म, शीत (हेमन्त) और वर्षा । श्रमण निर्ग्रन्थों की इन तीनों ऋतुओं की चर्या तपश्चरण एवं संयम से युक्त होती है। अगस्त्यचूर्णि में बताया है कि ग्रीष्मऋतु में श्रमण को स्थान, मौन एवं वीरासनादि विविध तप करना चाहिए, विशेषतः एक पैर से खड़े होकर सूर्य के सम्मुख मुख करके खड़े-खड़े आतापना लेनी चाहिए। जिनदास महत्तर ने 'ऊर्ध्वबाहु होकर उकडूं आसन से आतापना लेने का ४९. जिनदास चूर्णि, पृ. ११६ १०. (क) 'मण-वयण-कायजोगनिग्गहपरा ।' -अ. चू., पृ. ६३ (ख) त्रिगुप्ता:-मनोवाक्कायगुप्तिभिः गुप्ताः । -हारि. वृत्ति, पत्र ११८ १. (क) छसु पुढविकायादिसु त्रिकरण-एकभावेण जता-संजता । -अ. चू., पृ. ६३ (ख) षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः । -हारि. वृत्ति, पत्र ११९ ५२. 'सोतादीणि पंच इंदियाणि णिगिण्हंति ।' -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६३ ५३. (क) 'धीरा बुद्धिमन्तः स्थिरा वा ।' -हारि. वृत्ति, पत्र ११९ (ख) 'धीरा णाम धीरेत्ति वा सूरेत्ति वा एगट्ठा ।' ५४. (क) उज्जू-संजमो...तमेव एगं पासंतीति तेण उजुदंसिणो । अहवा उज्जुत्ति समं भण्णइ, समप्पाणं परं च पासंतीति उज्जुदंसिणो । -जिन. चूर्णि, पृ. ११६ (ख) '...उजू-रागदोसपक्खविरहिता, अविग्गहगती वा उज्जू-मोक्खमग्गो तं पस्संतीति उज्जुदंसिणो ।' -अगस्त्य चूर्णि, पृ. ६३ (ग) ऋजुदर्शिन:-संयमप्रतिबद्धाः । -हा. टीका, पृ. ११९
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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