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________________ दशवैकालिकसूत्र वाले।८ निर्ग्रन्थों का विशिष्ट आचार २७. पंचासव-परिन्नाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥ ११॥ २८. आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ॥ १२॥ २९. परीसह-रिऊ-दंता, धुयमोहा जिइंदिया । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा पक्कमति महेसिणो ॥१३॥ [२७] (वे पूर्वोक्त) निर्ग्रन्थ पांच आश्रवों को भलीभांति जान कर उनका परित्याग करने वाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, षड्जीवनिकाय के प्रति संयमशील, पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाले, धीर और ऋजुदर्शी होते हैं ॥११॥ [२८] (वे) सुसमाहित संयमी (निर्ग्रन्थ) ग्रीष्मऋतु में (सूर्य की) आतापना लेते हैं, हेमन्तऋतु में अपावृत (खुले बदन) हो जाते हैं और वर्षाऋतु में प्रतिसंलीन हो जाते हैं ॥१२॥ [२९] (वे) महर्षि परीषहरूपी रिपुओं का दमन करते हैं, मोह (मोहनीय कर्म) को प्रकम्पित कर देते हैं और जितेन्द्रिय (होकर) समस्त दुःखों को नष्ट करने के लिए पराक्रम करते हैं ॥ १३ ॥ विवेचन–अनाचीर्णत्यागी निर्ग्रन्थों की १४ आचार-अर्हताएँ- प्रस्तुत तीन गाथाओं (११-१२-१३) में पूर्वोक्त अनाचीर्णत्यागी निर्ग्रन्थ महर्षियों की आचार-अर्हताएं प्रस्तुत की हैं। तात्पर्य यह है जिनका आचार इतना कठोर होगा, जिन निर्ग्रन्थों की ऐसी कठोर आचारचर्या (प्रणाली) होगी, वे ही अनाचीर्णो से सर्वथा दूर रहने में सक्षम होंगे। स्पष्टीकरण इस प्रकार है पंचाश्रव-परिज्ञाता- जिनसे आत्मा में कर्मों का आगमन होता है, वे आश्रव कहलाते हैं। वे आश्रव मुख्यतया पांच हैं हिंसा, असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह । ये पांच आश्रय (आश्रवद्वार) हैं। वैसे आगमों में कर्मों के आश्रव (आगमन) के पांच कारण बताए हैं—(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग । आश्रव के कारण होने से इन्हें भी आश्रव कहा.जाता है। परिज्ञा' शास्त्रीय पारिभाषिक शब्द है। उसके दो प्रकार हैं—'ज्ञपरिज्ञा' और 'प्रत्याख्यानपरिज्ञा'। जो पंचाश्रव के विषय में दोनों परिज्ञाओं से युक्त हैं वे ही पंचाश्रवपरिज्ञाता हो सकते हैं । ज्ञपरिज्ञा से पांचों आश्रवों का स्वरूप भलीभांति जाना जाता है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका परित्याग किया जाता है। तात्पर्य यह है कि जो पांचों आश्रवों को अच्छी तरह जान कर उन्हें त्याग चुका है या उनका निरोध कर चुका है, वही पंचाश्रवपरिज्ञाता होता है। जो केवल आश्रवों को जानता है और जानते हुए भी ४८. (क) "लघुभूतो वायुः, ततश्च वायुभूतोऽप्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूतविहारिणः ।" —हारि. वृत्ति, पत्र ११८ (ख) "लघुभूतो मोक्षः संयमो वा, तं गन्तु शीलमस्येति लघुभूतगामी ।" -आचा. ३-४९, शीलांक वृत्ति, प. १४८
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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