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________________ ६५ तृतीय अध्ययन : क्षुल्लिकाचार-कथा के लिए प्रायश्चित्तयोग्य अनाचरणीय कर्म है, ऐसा निशीथसूत्र का विधान है।" विभूसणे : विभूषा—शरीर को वस्त्र, आभूषण आदि से मण्डित करना, केश-प्रसाधन करना, दाढ़ी-मूंछ, नख आदि को शृंगार की दृष्टि से काटना, शरीर की साज-सज्जा करना आदि विभूषा है। विभूषा ब्रह्मचर्य के लिए घातक है। इसी शास्त्र में विभूषा को १८ वां वय॑स्थान तथा आत्मगवेषी पुरुष के लिए तालपुट विष कहा है। उत्तराध्ययन में नौवीं ब्रह्मचर्यगुप्ति के सन्दर्भ में कहा गया है कि विभूषा करने वाला साधु स्त्रीजन द्वारा प्रार्थनीक हो जाता है। स्त्रियों द्वारा अभिलषित होने से उसके ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है और अन्त में या तो उसका ब्रह्मचर्य भग्न हो जाता है या वह उन्माद को प्राप्त हो जाता है, दीर्घव्याधिग्रस्त हो जाता है अथवा वह सर्वज्ञप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः ब्रह्मचारी के लिए विभूषात्याग अनिवार्य है। विभूषानुवर्ती भिक्षु चिकने कर्म बांधता है, जिसके कारण वह दुरुत्तर घोर संसारसागर में गिर जाता है। निर्ग्रन्थों के लिए पूर्वोक्त अनाचीर्ण अनाचरणीय २६. सव्वमेयमणाइण्णं निग्गंथाण महेसिणं । संजमम्मि य जुत्ताणं लहुभूय विहारिणं ॥१०॥ __[२६] 'जो संयम (और तप) में तल्लीन (उद्युक्त) हैं, वायु की तरह लघुभूत होकर विहार (विचरण) करते हैं तथा जो निर्ग्रन्थ महर्षि हैं, उनके लिए ये सब अनाचीर्ण (अनाचरणीय) हैं।' ॥१०॥ विवेचन ये सब अनाचीर्ण क्यों और किन के लिए ?— प्रस्तुत गाथा में पूर्वोक्त ५२ अनाचारों का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने विशेष रूप से प्रतिपादित किया है कि ये सब अनाचीर्ण किन के लिए और क्यों हैं? चार अर्हताओं से युक्त श्रमणवरों के लिए ये अनाचीर्ण- (१) संयम में युक्त, (२) लघुभूत विहारी, (३) निर्ग्रन्थ और (४) महर्षि या महैषी। इन चार अर्हताओं से युक्त श्रमणों के लिए ये आजीवन अनाचरणीय हैं। क्योंकि ये संयम के विघातक हैं। ___विशेष बात यह कि पूर्वोक्त ५२ अनाचीर्णों में से कई अनाचीर्ण ऐसे भी हैं, जिन्हें सद्गृहस्थ भी वर्जित समझते हैं और उनसे दूर रहते हैं, तब फिर जिनका तप-संयम उच्च एवं उज्ज्वल है, वे महर्षि इन अनाचीर्णों से सर्वथा दूर रहें, इसमें आश्चर्य ही क्या ?४६ । संजमम्मि य जुत्ताणं— संयम में उद्युक्त तत्पर या तल्लीन। लघुभूतविहारी- (१) वायु की तरह अप्रतिबद्ध विहारी द्रव्य (उपकरणों) से भी हल्के एवं भाव (कषाय) से भी हल्के होकर विचरण करने वाले, (२) मोक्ष के लिए विहार करने वाले, संयम में विचरण करने ४४. निशीथ. ३-२४ ४५. उत्तराध्ययन, अ. १६-११ ४६. दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ४७ ४७. (क) हारि. वृत्ति, पत्र ११८ (ख) युक्त इत्युज्यते योगी: युक्तः समाहितः । गीता शांकरभाष्य ६-८, पृ. १७७
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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