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दशवैकालिकसूत्र
यश चाहते हो और तुम्हारा विचार इतना नीच है ! इसलिए तुम्हें धिक्कार है !३९
_ 'जो तं जीवियकारणां' : दो फलितार्थ—(१) जिनदास महत्तरकृत चूर्णि के अनुसार कुशाग्र पर स्थित जलबिन्दु के समान क्षणभंगुर जीवन के लिए, (२) हरिभद्रसूरिकृत टीका के अनुसार—असंयमी जीवन के लिए।
___ 'सेयं ते मरणं भवे' : तात्पर्य— (१) मरण श्रेयस्कर इसलिए माना गया कि अकार्य सेवन से व्रतों का भंग होता है, इसकी अपेक्षा व्रतों की रक्षा करता हुआ साधक यदि मरण-शरण हो जाता है तो वह 'आत्मघाती' नहीं, अपितु 'व्रतरक्षक' कहलाता है। (२) भूखा मनुष्य चाहे कष्ट पा ले, परन्तु वह धिक्कारा नहीं जाता, किन्तु वमन किये हुए को खाने वाला धिक्कारा जाता है, घृणा का पात्र बनता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति शीलभंग करने की अपेक्षा मृत्यु को अंगीकार कर लेता है, वह एक बार ही मृत्यु का कष्ट महसूस करता है, किन्तु अपने गौरव तथा श्रमणधर्म की रक्षा कर लेता है, परन्तु जो परित्यक्त (वान्त) भोगों का पुनः उपभोग करता है, वह अनेक बार धिक्कारा जाकर बार-बार मृत्यु तुल्य अपमान अनुभव करता है। अतः कहा गया कि "मर्यादा का अतिक्रमण करने की अपेक्षा तो मरना श्रेयस्कर है।
____ 'अहं च भोगरायस्स०' इत्यादि पाठ : दो अभिप्राय प्रस्तुत ८वीं गाथा में राजीमती ने अपने और रथनेमि के कुलों की उच्चता का परिचय देकर अकुलीन व्यक्ति का-सा अकार्य न करने की प्रबल प्रेरणा देते हुए रथनेमि को संयम में स्थिर होने का उपदेश दिया है। भोगरायस्स' पद के 'भोगराजस्य' और 'भोजराजस्य' इन दोनों का षष्ठ्यन्तपद में रूपान्तर डॉ. जेकोबी ने सूचित किया है। किसी का मानना है—'भोगरायस्स और अंधकबण्हिणो' ये दोनों पद कुल के वाचक हैं। दूसरा मत है—इन दोनों षष्ठ्यन्त पदों का सम्बन्ध किसके साथ है ? इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, इसलिए उपर्युक्त मतानुसार कुल शब्दों का दोनों जगह अध्याहार किया जाता है। दूसरे मतानुसार दोनों षष्ठ्यन्त पदों का सम्बन्ध क्रमशः 'पुत्री' और 'पुत्र' शब्द से है, इनका भी अध्याहार किया गया है। ३९. (क) जिनदास चूर्णि, पृ. ८८ (ख) हारि. वृत्ति, पत्र ९६
(ग) यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते । हारि. वृत्ति, पत्र ९६ (घ) दशवै. (आचार्य आत्मारामजी म.), पृ. २८ ४०. (क) "जो तुम इमस्स कुसग्गजलबिंदुचंचलस्स जीवियस्स अट्ठाए ।"
-जि. चू., पृ. ८८ (ख) 'जीवितकारणात् असंयमजीवितहेतोः ।
-हारि. वृत्ति, पत्र ९६ ४१. (क) दशवै. (आचार्य श्री आत्माराम जी म.), पृ. २८
(ख) दशवै. जि. चू., ८७ (ग) हारि. वृत्ति, पत्र ९६
(घ) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. ३२-३३ ४२. (क) दशवै. (संतबालजी), पृ. ११
(ख) "तुमं च तस्स तारिसस्स अंधगवण्हिणो कुले पसूओ समुद्दविजयस्स पुत्तो ।" -जिन. चूर्णि, पृ. ८८ (ग) हारि. वृत्ति, पृ. ९७, उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य वृत्ति, अ. २२/४३ (घ) दशवै. (आचार्य आत्माराम जी म.), पृ. २९ (ङ) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. ३३