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________________ ४१ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक इन पदों द्वारा कुल की निर्मलता एवं विशुद्धता अथवा उच्चता या प्रधानता की ओर रथनेमि का ध्यान खींचा गया है, क्योंकि शुद्ध कुलीन व्यक्ति प्राय: अकृत्य में प्रवृत्त नहीं होते । वे कष्टों के सामने दृढ़तापूर्वक डटे रहते हैं। वे स्वाभाविक रूप से धीर होते हैं । इसीलिए राजीमती ने कहा ' मा कुले गंधणा होमो' — अर्थात् "हम दोनों ही महाकुल में उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार गन्धन सर्प वमन किये हुए विष को पुन: पी लेता है, उसी प्रकार हम भी परित्यक्त भोगों का पुनः उपभोग करने वाले न हों । ४३ 'निहुओ' : अर्थ और अभिप्राय यहां 'निभृत' पद का अर्थ है— निश्चल चित्त वाला, अव्याक्षिप्तचित्त । जिसका चित्त निश्चल या स्थिर होता है, वही सर्वदुःखनिवारक संयम के विधिविधान या क्रियाकलाप का यथावत् पालन कर सकता है। व्याक्षिप्तचित्त वाला पुरुष धैर्यच्युत होकर संयम की विराधना कर बैठता है । इसलिए यहां 'निभृत' (निहुओ) पद दिया गया है । ४ 'हड' वनस्पति की तरह अस्थितात्मा हो जाएगा प्रस्तुत ९ वीं गाथा में राजीमती ने संयम में स्थिर होकर रमण न करने वाले साधकों की अस्थिरतर दशा का निरूपण हड वनस्पति से तुलना करके किया है। 'जा जा दिच्छसि नारीओ' आदि : तात्पर्य- इस वाक्य का अर्थ यह है कि यह वसुन्धरा नाना स्त्रीरत्नों से परिपूर्ण है । यत्र-तत्र अनेक नारियां दृष्टिगोचर होंगी । यदि तुम उन कामिनियों को देख कर उनके प्रति अभिलाषा या अनुरक्ति करने लगोगे तो याद रखो, जिस प्रकार अबद्धमूल हड नामक समुद्रीय वनस्पति वायु के एक हलके-से स्पर्श से इधर से उधर बहने लगती है, उसी प्रकार तुम भी संयम में अबद्धमूल (अस्थिर) होने से संसार - समुद्र में प्रमादरूपी पवन से प्रेरित होकर चतुर्गत्यात्मक संसार में इधर से उधर भटकते रहोगे । अथवा संयम में अबद्धमूल होने से श्रमणगुणों से शून्य होकर संयम में अस्थिरात्मा केवल द्रव्यलिंगधारी हो जाओगे । ४५ निष्कर्ष यह है कि जब साधक का मन विषयों की ओर आकृष्ट हो जाता है, तब वह एकाग्रता से हटकर अस्थिर एवं डांवाडोल हो जाता है। यों तो संसार के सभी इष्ट पदार्थ मन की चंचलता को बढ़ाने वाले हैं, परन्तुं स्त्री उन सबमें प्रबल है, मोह और राग की उत्तेजक है । सुन्दर ललना के प्रति अनुराग और असुन्दर के प्रति घृणाअरुचि । यहां तो चंचलता या विषादमग्नता है । ४६ हड : अनेक अर्थ - (१) हड - अबद्धमूल वनस्पतिविशेष, (२) समुद्रतटीय अबद्धमूल वनस्पति, जिसके सिर पर अधिक भार होता है। समुद्रतट पर हवा का अधिक जोर होने से उसका पौधा उखड़ कर समुद्र में गिर कर वहां इधर-उधर डोलता रहता है। (३) वनस्पतिविशेष, जो द्रह, तालाब आदि में होती है, उसका मूल छिन्न ४३. दशवै. (डॉ. जेकोबी), (आचार्य आत्मा), पृ. २९, अर्धमागधी गुजराती कोष, पृ. १२, ५९६ ४४. दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ३० ४५. (क) दशवै. ( मुनि नथमलजी), पृ. ३५ (ख) सकलदुःखक्षयनिबन्धनेषु संयमगुणेष्वबद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्चेतश्च पर्यटिष्यसीति । — हारि. वृत्ति, पत्र ९७ (ग) हढो वातेण य आइद्धोइओ-इओ य निज्जइ, तहा तुमंपि एवं करेंतो संजमे अबद्धमूलो समणगुणपरिहीणो केवलं द्रव्यलिंगधारी भविस्ससि । — जन. चूर्णि, पृ. ८९ ४६. दशवैकालिकसूत्रम् (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. ३०
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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