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________________ 'द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक स्थिरता के लिए साध्वी राजीमती द्वारा दिया गया प्रबल प्रेरक उपदेश है। अगन्धनकुल के सर्प का दृष्टान्तबोध — सर्प की दो जातियां होती हैं—न्धन और अगन्धन । गन्धन जाति के सर्प मंत्रादि के बल से आकर्षित किये जाने पर विवश होकर उगले हुए विष को मुंह लगाकर वापिस चूस लेते हैं, अगन्धन जाति के सर्प प्राण गंवाना पसंद करते हैं, किन्तु उगले विष को वापिस नहीं पीते । इस दृष्टान्त के द्वारा राजीमति रथनेमि से यह कहना चाहती है कि अगन्धनकुल का सर्प जिस किसी को डस लेता है, मंत्रबल से आकृष्ट किये जाने पर आता है, किन्तु उगला हुआ विष वापस नहीं चूसता, भले ही उसे धधकती हुई आग में कूद कर मर जाना पड़े। इसी प्रकार हे रथनेमि ! तुम्हें भी अगन्धन सर्व की तरह वमन किये हुए काम - भोगों को पुनः अपनाना कथमपि श्रेयस्कर नहीं है। साथ ही इस गाथा द्वारा यह भी सूचित कर दिया है कि तुम्हें यह सोचना चाहिए कि अविरत और धर्मज्ञान-हीन तिर्यञ्च अगन्धन सर्प भी केवल कुल का अवलम्बन लेकर अपने प्राण होमने को तैयार जाता है, किन्तु उगले हुए विष को पुनः पीने जैसा घृणित काम नहीं करता। हम तो मनुष्य हैं, उच्चकुलीन हैं, धर्मज्ञ हैं, फिर भला क्या हमें कुल और जाति की आन-मानमर्यादा को तिलांजलि देकर स्वाभिमान का त्याग करके परित्यक्त एवं दारुणदुःखमूलक विषयभोगों का पुनः कायरतापूर्वक सेवन करना चाहिए। ३७ धूमकेडं, दुरास जोइं, 'जलियं' : 'दुरासयं' के दो अर्थ हैं— (१) जिसका संयोग सहन करना दुष्कर हो, वह दुरासद, (२) चूर्णि के अनुसार —– दहनसमर्थ । 'धूमकेतु' शब्द ज्योति (अग्नि) का पर्यायवाची है, उसका शब्दश: अर्थ होता है— धूम ही जिसका केतु (चिह्न) हो, ज्योति उल्कादिरूप भी होती है, इसलिए विशेष रूप से .' प्रज्वलित अग्नि' को सूचित करने के लिए 'धूमकेतु' विशेषण दिया है, अर्थात् — जिससे धूंआ निकल रहा है, वह अग्नि (प्रज्वलित ज्योति) । धूमकेउं आदि तीनों 'जोइं' के विशेषण हैं। इनका परस्पर विशेषण- विशेष्य सम्बन्ध है। पेट उपालम्भात्मक उपदेश— प्रस्तुत ७वीं गाथा में राजीमती ने रथनेमि को उपालम्भपूर्वक समझाया है। इसमें राजमती द्वारा धिक्कार, अपयशकामी तथा असंयमी जीवन जीने के लिए वमन किये हुए भोगों को पुनः सेवन करने की अपेक्षा मरण की श्रेयस्करता का प्रतिपादन किया गया है। जसोकामी : दो रूप : तीन अर्थ - ( १ ) अयशस्कामिन् — हे अपयश की कामना करने वाले !(२) अयशस्कामिन् —–यश अर्थात् संयम, अयश अर्थात् — असंयम । हे असंयम के कामी ! ( ३ ) यशस्कामिन् हे यश की चाह वाले ! अथवा हे कामी ! तुम्हारे यश को धिक्कार है ! भावार्थ यह है— हे यश की चाह वाले ! तुम ३७. ३९ ३८. (क) अगस्त्य - चूर्णि, पृ. ४५ (ख) जिन. चूर्णि, पृ. ८७ (ग) हारि. वृत्ति, पत्र ९५ (घ) दशवै . ( मुनि नथमलजी), पृ. ३२ (ङ) दशवै. (आ. आत्मारामजी म.), पृ. २६ (क) दुरासदं—–दुःखेनासाद्यतेऽभिभूयते इति दुरासदस्तं, दुरभिभवमित्यर्थः । (ख) दुरासयो नाम डहणसमत्थत्तणं, दुक्खं तस्स संजोगो सहिज्जइ दुरासओ, तेण । (ग) जोती अग्गी भण्णइ, धूमो तस्सेव परियाओ, केऊ उस्सओ चिंधं वा सो धूमे केतू जस्स (घ) अग्निं धूमकेतुं धूमचिह्नं धूमध्वजं, नोल्कादिरूपम् । - हा वृत्ति, पत्र ९५ - जि. चू., पृ. ८७ भवई धूमकेऊ । — जिन. चूर्णि, पु. ८७ — हारि. वृत्ति, पत्र ९५
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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