SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशवैकालिकसूत्र भगवद्गीता में भी कहा है— जिसका मन दुःखों में अनुद्विग्न और सुखों में स्पृहारहित रहता है, उस प्रसन्नचेता स्थितप्रज्ञ व्यक्ति के चित्त की प्रसन्नता सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं।६ निष्कर्ष यह है कि अगर तू इन कामनिवारणोपायों को करता रहेगा, रागद्वेष त्याग कर मध्यस्थभाव प्राप्त करेगा तो परीषहसंग्राम में विजयी बन कर सुखी हो जाएगा। कामपराजित रथनेमि को संयम में स्थिरता का राजीमती का उपदेश ३८ ११. पक्खंदे जलियं जोईं धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे ॥ ६ ॥ १२. धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥ ७ ॥ १३. अहं च भोगरायस्स, तं च सि अंधगवहिणो । मा कुले गंधणा होमो संयमं निहुओ चर ॥ ८ ॥ १४. जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविद्धो व्व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि ॥ ९ ॥ [११] (राजीमती रथनेमि से ) " अगन्धनकुल में उत्पन्न सर्प प्रज्वलित दुःसह अग्नि ( ज्योति) में कूद (प्रवेश कर) जाते हैं, (किन्तु जीने के लिए) वमन किये हुए विष को वापिस चूसने की इच्छा नहीं करते " ॥ ६॥ [१२] हे अपयश के कामी ! तुझे धिक्कार है ! जो तू असंयमी (अथवा क्षणभंगुर ) जीवन के लिए वमन किये हुए (पदार्थ) को ( वापिस ) पीना चाहता है। इस ( प्रकार के जीवन) से तो संयमपूर्वक तेरा मर जाना ही श्रेयस्कर है ॥७॥ [१३] मैं (राजीमती) भोजराज (उग्रसेन) की पुत्री हूं और तू (रथनेमि ) अन्धकवृष्णि (समुद्रविजय) का पुत्र है। (उत्तम) कुल में (उत्पन्न हम दोनों) गन्धन कुलोत्पन्न सर्प के समान न हों। (अतः) तू निभृत (स्थिरचित्त) हो कर संयम का पालन (आचरण) कर ॥ ८ ॥ [१४] तू जिन-जिन नारियों को देखेगा, उनके प्रति यदि इस प्रकार रागभाव करेगा तो वायु से आहत (अबद्धमूल) हड नामक (जलीय वनस्पति) की तरह अस्थिरात्मा हो जाएगा ॥ ९ ॥ विवेचन — प्रस्तुत चार गाथाओं (११ से १४ तक) में संयम से अस्थिर होते हुए रथनेमि को संयम में ३५. (घ) यावदपवर्गं न प्राप्स्यति तावत् सुखी भविष्यसि । (ङ) युद्धं वा संपरायो बावीसपरीसहोवसग्ग- जुद्धलद्धविजयो परमसुही भविस्ससि । (च) सम्पराये— परीसहोपसग्गसंग्राम इत्यन्ये । — हारि. वृ., पत्र ९५ अ. चूर्णि, पृ. ४५ — हारि. वृत्ति, पत्र ९५ (छ) जुतं मण्णइ, जया रागदोसेसु मज्झत्थो भविस्ससि तओ जियपरीसहसंपराओ सुही भविस्ससि त्ति । — जिन. चूर्णि, पृ. ८६ ३६. भगवद्गीता अ. २, श्लोक ५५,५६
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy