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________________ द्वितीय अध्ययन : श्रामण्य-पूर्वक मोहकर्मोदयवश भुक्तभेगी का पूर्वक्रीड़ा आदि के अनुस्मरण से तथा अभुक्तभोगी का मन कुतूहल आदि वश संयमरूपी गृह से बाहर निकल जाए, यानी मन नियंत्रण में न रहे । २४ समूचे वाक्य का तात्पर्य—— यह कि श्रमण का साम्यदृष्टि या समभाव के चिन्तन में रहा हुआ मन कदाचित् मोहनीय कर्मोदयवश संयमरूपी घर से बाहर निकलने लगे, तो क्या कर्त्तव्य है ? इसे समझाने के लिए वृत्तिकार एक रूपक प्रस्तुत करते हें। संक्षेप में वह इस प्रकार है— एक दासी पानी का घड़ा लेकर उपस्थानशाला के निकट से निकली। वहीं खेल रहे राजपुत्र ने कंकड़ फैंक कर घड़े में छेद कर दिया। दासी ने निरुपाय होकर तुरन्त ही गीली मिट्टी से घड़े के छेद को बंद कर दिया। इसी प्रकार संयमरूपी उपवन में रमण करते हुए यदि अशुभभाव संयमी हृदय - घट में छेद करने लगे तो उसे प्रशस्तपरिणाम रूप मिट्टी द्वारा उस अशुभ भाव जन्य छिद्र को चारित्र - जल रक्षणार्थ शीघ्र ही बंद कर देना चाहिए । २५ ३५ मोहत्याग का उपाय : प्रशस्त परिणाम — शास्त्रकार इस प्रशस्त परिणाम के रूप में भेदचिन्तन प्रस्तुत करते हैं—न सा महं नो वि अहंपि तीसे । इसका सामान्य अर्थ तो मूल में दिया ही है, व्यापक अर्थ इस प्रकार होता है—वह (स्त्री या आत्मा से भिन्न परभावात्मक वस्तु, मेरी नहीं है, न ही मैं उसका हूं। तलवार और म्यान की तरह आत्मा और देह को या देह से सम्बन्धित प्रत्येक सजीव-निर्जीव वस्तु को भिन्न-भिन्न मानना ही भेदविज्ञान का तत्त्वचिन्तन है। रहता इस स्त्रीपरक भेदचिन्तन को सुगमता से समझाने के लिए चूर्णि में एक उदाहरण दिया गया है। उसका सारांश इस प्रकार है— एक वणिकपुत्र ने अपनी पत्नी से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की। फिर वह इस प्रकार रटन करता -"वह मेरी नहीं है, और न ही मैं उसका हूं।" यों रटन करते-करते एक दिन उसके मन में पूर्व-भोगस्मरणवश चिन्तन हुआ— "वह मेरी है, मैं भी उसका हूं। वह मुझ में अनुरक्त है, फिर मैंने उसका व्यर्थ ही त्याग किया।" इस प्रकार सोच कर वह उस गांव में पहुंचा, जहां उसकी भूतपूर्व पत्नी थी। उसने अपने भूतपूर्व पति को गांव में आया देख पहचान लिया, परन्तु वह ( साधक) अपनी भूतपूर्व पत्नी को पहचान न सका । अतः उसने पूछा - "अमुक की पत्नी मर गई या जीवित है ?" संयम से विचलित उक्त साधक का विचार था कि यदि वह जीवित होगी तो प्रव्रज्या छोड़ दूंगा, अन्यथा नहीं । स्त्री ने अनुमान लगाया कि मेरे प्रति मोहवश इन्होंने दीक्षा छोड़ दी तो हम दोनों संसार-परिभ्रमण करेंगे। ऐसा सोच कर वह बोली - "वह तो दूसरे के साथ चली गई है।" उसकी चिन्तन-दिशा मुड़ी, मोह के बादल फटे, सोचने लगा —– जिस स्त्री को मैं कामदृष्टि से देखता था, वह मेरी नहीं है, न ही मैं उसका हूं। यह जो मंत्र मुझे सिखलाया गया था, वह ठीक है। तात्पर्य यह है कि जब मेरा उससे कुछ सम्बन्ध ही नहीं, तब फिर उस पर मेरा रांग (मोह) करना व्यर्थ है । इस प्रकार परमसंवेग उत्पन्न हो जाने से वह पुनः संयम में स्थिर हो गया । २६ २४. बहिद्धा - बहिर्धा - बहि: - भुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितानुस्मरणादिना, अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलादिना मनः— अन्तकरणं निःसरति = निर्गच्छति, बहिर्धा = संयमगेहाद् बहिरित्यर्थः । — हारि वृत्ति, पत्र ९४ २५. हारि. वृत्ति, पत्र ९४ २६. (क) दशवै. हारि. वृत्ति, पत्र ९४ (ख) दशवै. ( आचार्य श्री आत्मारामजी), पृ. २३
SR No.003465
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_dashvaikalik
File Size11 MB
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