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दशवकालिकसूत्र कहलाएगा।
निष्कर्ष यह है कि धनी हो या निर्धन, जो व्यक्ति वैराग्यपूर्वक मनोरम एवं दिव्यभोगों का स्वेच्छा से त्याग कर देता है, फिर उसका मन से भी विचार नहीं करता, वही त्यागी है। काम-भोगनिवारण के उपाय
९. समाए पेहाए परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा ।
न सा महं, नो वि अहंपि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज रागं ॥ ४॥ १०. आयावयाही चय सोगुमल्लं, कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं ।
छिंदाहि दोसं, विणएज रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥ [९] समभाव की प्रेक्षा से विचरते हुए (साधु का) मन कदाचित् (संयम से) बाहर निकल जाए, तो वह (स्त्री या कोई काम्य वस्तु) मेरी नहीं है, और न मैं ही उसका हूं' इस प्रकार का विचार करके उस (स्त्री या अन्य काम्य वस्तु) पर से (उसके प्रति होने वाले) राग को हटा ले।
[१०] (गुरु शिष्य से कहते हैं—) 'आतापना ले (या अपने को अच्छी तरह से तपा), सुकुमारता का त्याग कर। कामभोगों (विषयवासना) का अतिक्रम कर। (इससे) दुःख अवश्यमेव (स्वतः) अतिक्रान्त होगा। (साथ ही) द्वेषभाव का छेदन कर, रागभाव को दूर कर। ऐसा करने से तू संसार (इह-परलोक) में सुखी हो जाएगा।'
विवेचन आन्तरिक एवं बाह्य उपाय द्वारा कामनिवारण- प्रस्तुत दो गाथाओं (४-५) में कामरागनिवारण के आन्तरिक और बाह्य दोनों उपाय बतलाए हैं।
समाए पेहाए परिव्वयंतो : दो रूप : तीन अर्थ और तात्पर्य (१) समया प्रेक्षया परिव्रजतः- चूर्णि और टीका के अनुसार अपने और दूसरे को समप्रेक्षा (समदृष्टि, समभावना, आत्मौपम्यभाव) से देख कर विचरण करते हुए, (२) प्रसंग-संगत अर्थ रूप और कुरूप में, या इष्ट और अनिष्ट में समभाव रखते हुए राग-द्वेष भाव न करते हुए अथवा समदृष्टिपूर्वक अर्थात् प्रशस्त ध्यानपूर्वक विचार करता हुआ (मन),(३) अगस्त्य-चूर्णि के अनुसार समया प्रेक्षया परिव्रजत : सम अर्थात् संयम, उसके लिए प्रेक्षा (अनुप्रेक्षा-चिन्तन) पूर्वक विचरण करते हुए (साधक का)। सिया : स्यात् कदाचित्, भावार्थ यह है कि प्रशस्तध्यान में या समदृष्टि से विचरण करते हुए भी हठात् मोहनीयकर्म के उदय से।२२ मणो निस्सरई बहिद्धा : भावार्थ मन (संयम से) बाहर निकल जाय। भावार्थ यह है कि श्रमण के मन के रहने का स्थान वस्तुतः संयम होता है। अतः कदाचित् २१. (क) अग. चूर्णि, पृ. ४३ (ख) जिन. चूर्णि, पृ. ८४ (ग) हारि. वृत्ति, पत्र ९३ २२. (क) 'समा णाम परमप्पाणं समं पासइ, णो विसमं, पेहा णाम चिन्ता भण्णइ ।' –जिनदास चूर्णि, पृ. ८४ (ख) समया-आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा-दृष्टिस्तया प्रेक्षया दृष्ट्या।
-हरि. टी., पत्र ९३ (ग) अहवा 'समाय' समो-संजमो, तदत्थं पेहा-प्रेक्षा।
-अग. चूर्णि, पृ.४४ २३. (क) सिय सद्दो आसंकावादी, 'जति' एतम्मि अत्थे वट्टति।
-अग. चूर्णि, पृ. ४४ (ख) 'स्यात्'—कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्मगतेः ।
-हरि. वृत्ति, पत्र ९४ (ग) 'पसत्थेहिं झाणठाणेहिं वटुंतस्स मोहणीयस्स कम्मस्स उदएणं ।'
-जिन. चूर्णि, पृ. ८४