________________
३६
दशवैकालिकसूत्र
'इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं' : तात्पर्य— कदाचित् स्त्री या उस परवस्तु के प्रति मोहोदयवश कामराग, स्नेहराग या दृष्टिराग, इन तीनों में से किसी भी प्रकार का राग जागृत हो जाए तो उसे इस (पूर्वोक्त) प्रकार से दूर करे, उसका दमन करे, मन का निग्रह करे। अर्थात् —संयमी संयम में विषाद-प्राप्त आत्मा को इस प्रकार से चिन्तनमंत्र से पुनः संयम में प्रतिष्ठित करे।
संयमनिर्गत मन से कामरागनिवारण की बाह्यविधि— प्रस्तुत (५वीं) गाथा में रागनिवारण के अथवा पांचों इन्द्रियों एवं मन पर विजय पाने के या भावसमाधि प्राप्त करने के चार बाह्य उपाय बताए हैं—(१) आतापना, (२) सौकुमार्यत्याग, (३) द्वेष का उच्छेद, (४) राग का अपनयन। स्थानांगसूत्र में मदनकाम (मैथुन) संज्ञा की उत्पत्ति चार कारणों से बताई गई है (१) मांस-रक्त के उपचय (वृद्धि) से, (२) मोहनीय कर्म के उदय से, (३) तद्विषयक काम-विषय की मति से और (४) काम के लिए उपयोग (बार-बार चिन्तन-मनन, स्मरण आदि) से। मैथुनसंज्ञा की उत्पत्ति के उपर्युक्त चारों कारणों से बचने के चार बाह्य उपाय हैं।
आयावयाही :कायबलनिग्रह का प्रथम उपाय : व्यापक अर्थ—चूर्णिकार का कथन है कि (संयमनिर्गत) मन का निग्रह उपचित शरीर के कारण नहीं होता. अतः उसके लिए सर्वप्रथम कायबलनिग्रह के उपाय बताए गए हैं। अर्थात् —मांस और रक्त को घटाने का सर्वप्रथम उपाय बताया गया है—आयावयाही । आयावयाही : दो अर्थ (१) अपने को तपा, अर्थात् तप कर। 'आतापन' शब्द केवल आतापना लेने (धूप में तपने) के अर्थ में ही नहीं, किन्तु उसमें अनशन, ऊनोदरी आदि बारह प्रकार के तप भी समाविष्ट हैं, जो कायबलनिग्रह के द्वारा कामविजय में सहायक हैं। (२) आतापना ले। सर्दी-गर्मी की तितिक्षा, अथवा शीतकाल में आवरणरहित होकर शीत सहन करना, ग्रीष्मकाल में सूर्याभिमुख होकर गर्मी सहन करना आदि सब आतापना है।३०
सौकुमार्य-त्याग :कायबलनिग्रह का द्वितीय उपाय— प्राकृत भाषा में सोउमल्लं, सोअमल्लं, सोगमल्लं, सोगुमल्लं ये चारों रूप बनते हैं, संस्कृत में इसका रूपान्तर होता है सौकुमार्य। जो सुकुमार (आरामतलब, सुखशील, सुविधाभोगी, आलसी या अत्यधिक शयनशील और परिश्रम से जी चुराने वाला) होता है, उसे काम सताता है, विषयभोगेच्छा पीड़ित करती है। और वह स्त्रियों का काम्य हो जाता है। इसलिए कायबलनिग्रह के द्वितीय उपाय के रूप में शास्त्रकार कहते हैं—'चय सोगुमल्लं' अर्थात् सौकुमार्य का त्याग कर।
२६. (ग) अयं ममेति मंत्रोऽयं मोहस्य जगदान्ध्यकृत् । . अयमेव हि नपूर्वः, प्रतिमंत्रोऽपि मोहजित् ॥
___-मोहत्यागाष्टकम् २७. (क) दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. २८ (ख) दशवै. (आचार्यश्री आ.), पृ. २३ २८. चउहिं ठाणेहिं मेहुणसण्णा समुप्पजति, तं.-चितमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएण, मतीए, तदट्ठोवयोगेणं।
-स्थानांग, स्था. ४/५८१ २९. (क) सो य न सक्कइ उवचियसरीरेण णिग्गहेतुं तम्हा कायबलनिग्गहे इमं सुत्तं भण्णइ ।
(ख) एगग्गहणे तज्जाइयाण गहणं ति, न केवलं आयावयाहि-ऊणोदरियमवि करेहि ।—जिन. चूर्णि, पृ.८५/८६ ३०. दशवै. (मुनि नथमलजी), पृ. २९ ३१. (क) सुकुमालस्स कामेहिं इच्छा भवइ, कमणिजो य स्त्रीणां भवति सुकुमालः, सुकुमाल-भावो सोकमल्लं ।
-जित. बूर्णि (ख) सौकमार्यात कामेच्छा प्रवर्तते. योषितां य प्रार्थनीयो भवति ।
- हा.टी.. प. ९५