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________________ [दशाश्रुतस्कन्ध निश्चयात्मक भाषा के अनुसार परिस्थिति न होने पर जिनशासन की निन्दा होती है, बोलने वाले का अवर्णवाद होता है, कई बार संघ में विकट परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, अनेक प्रकार के अनर्थ होने की संभावना रहती है। अतः भिक्षु का निश्चयात्मक भाषा बोलना ग्यारहवां असमाधिस्थान १२. नया कलह उत्पन्न करना-बिना विवेक के बोलने से कलह उत्पन्न हो जाते हैं। द्रौपदी के एक अविवेक भरे वचन से महाभारत का घोर संग्राम हुआ। अतः कलह उत्पन्न होने वाली भाषा का प्रयोग करना बारहवां असमाधिस्थान है। १३. पुराने कलह को पुनः उभारना-बिना विवेक के कई बार ऐसी भाषा का प्रयोग हो जाता है जिससे उपशांत कलह पुनः उत्तेजित हो जाता है। भिक्षु को ऐसी भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं है। उपशान्त कलह को पुनः उत्तेजित करना तेरहवां असमाधिस्थान है। १४. अकाल में स्वाध्याय करना-सूर्योदय और सूर्यास्त का समय तथा मध्याह्न और मध्य रात्रि का एक-एक मुहूर्त का समय स्वाध्याय के लिए अकाल कहा गया है। कालिक सूत्रों के स्वाध्याय के लिए दूसरा और तीसरा प्रहर अस्वाध्याय काल कहा गया है। इसके सिवाय औदारिक संबंधी १०, आकाश संबंधी १० और महोत्सव संबंधी १० अस्वाध्याय भी अकाल हैं। भगवदाज्ञा का उल्लंघन तथा अन्य दैवी उपद्रव होने की संभावना रहने से अकाल में स्वाध्याय करना चौदहवां असमाधिस्थान है। १५. सचित्त रज-युक्त हाथ-पैर आदि का प्रमार्जन न करना-भिक्षु भिक्षा के लिए जाए या विहार करे, उस समय उसके हाथ-पैर आदि पर यदि कभी सचित्त रज लग जाए तो उसका प्रमार्जन किए बिना बैठना, शयन करना, आहारादि करना असमाधि का हेतु है। क्योंकि अयतना असमाधि का और यतना समाधि का हेतु है। जिनकल्पी अपनी चर्या के अनुसार जब तक हाथ-पैर आदि पर सचित्त रज रहती है, तब तक बैठना, शयन करना, आहार करना आदि नहीं करते हैं। एक वैकल्पिक अर्थ यह भी है-जिस गृहस्थ के हाथ-पैर आदि सचित्त रज से लिप्त हों तो उसके हाथ से आहारादि लेना, यह पन्द्रहवां असमाधिस्थान है। __१६. बहुभाषी होना बहुत ज्यादा बोलना कलह-उत्पत्ति का कारण हो सकता है। वैसे तो मौन रहना सबसे अच्छा है, मौन भी एक प्रकार का तप है, किन्तु मौन न रह सकें तो अनावश्यक भाषण करना तो सर्वथा अनुचित है। यह सोलहवां असमाधिस्थान है। १७. संघ में मतभेद उत्पन्न करना-समाज में मतभेद उत्पन्न करने वाली युक्तियों का प्रयोग करना, यह सत्रहवां असमाधिस्थान है। १८.कलह करना-प्रायः असत्य भाषण से कलह उत्पन्न होता है, किन्त कभी-कभी सत्य भाषण से भी कलह हो जाता है। सत्य एवं मृदु भाषा कल्याणकारी होती है। अतः अप्रिय, कटुक, कठोर, कलहकारी भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं है। यह अठारहवां असमाधिस्थान है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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