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उत्तरगुणातिचार-प्रतिसेवना दस प्रकार की है। उत्तरगुण अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियन्त्रित, साकार, अनाकार, परिमाणकृत, निरवशेष, सांकेतिक और अद्रा प्रत्याख्यान के रूप में है। ऊपर शब्दों में उत्तरगुणों के पिण्डविशुद्धि, पांच समिति, बाह्य तप, आभ्यान्तर तप, भिक्षुप्रतिमा और अभिग्रह इस तरह दस प्रकार हैं। मूलगुणातिचारप्रतिसेवना और उत्तरगुणातिचारप्रतिसेवना इनके भी दर्प्य और कल्प्य ये दो प्रकार हैं। बिना कारण प्रतिसेवना दर्पिका है और कारण युक्त प्रतिसेवना कल्पिका है। वृत्तिकार ने विषय को स्पष्ट करने के लिए स्थान-स्थान पर विवेचन प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान ३४६२५ श्लोक प्रमाण है।
वृत्ति के पश्चात् जनभाषा में सरल और सुबोध शैली में आगमों के शब्दार्थ करने वाली संक्षिप्त टीकाएं लिखी गई हैं, जिनकी भाषा प्राचीन गुजराती-राजस्थानी मिश्रित है। यह बालावबोध व टब्बा के नाम से विश्रुत हैं। स्थानकवासी परम्परा के धर्मसिंह मुनि ने व्यवहारसूत्र पर भी टब्बा लिखा है, पर अभी तक वह अप्रकाशित ही है। आचार्य अमोलकऋषिजी महाराज द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद सहित व्यवहारसूत्र प्रकाशित हुआ है। जीवराज घेलाभाई दोशी ने गुजराती में अनुवाद भी प्रकाशित किया है। शुबिंग लिपज़िग ने जर्मन टिप्पणी के साथ सन् १९१८ में लिखा। जिसको जैन साहित्य समिति पूना से १९२३ में प्रकाशित किया है।
पूज्य घासीलालजी म. ने छेदसूत्रों का प्रकाशन केवल संस्कृत टीका के साथ करवाया है।
आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से सन् १९८० में व्यवहारसूत्र प्रकाशित हुआ। जिसका सम्पादन आगममर्मज्ञ मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' ने किया।
प्रस्तुत सम्पादन-मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' ने पहले आयार-दसा, कप्पसुत्तं और ववहारसुत्तं इन तीनों छेदसूत्रों का सम्पादन और प्रकाशन किया था। उसी पर और अधिक विस्तार से प्रस्तुत तीन आगमों का सम्पादन कर प्रकाशन हो रहा है। इसके पूर्व निशीथ का प्रकाशन हो चुका है। चारों छेदसूत्रों पर मूल, अर्थ और विवेचन युक्त यह प्रकाशन अपने आप में गौरवपूर्ण है। इन तीन आगमों के प्रकाशन के साथ ही प्रस्तुत आगममाला से स्थानकवासी परम्परा मान्य बत्तीस आगमों का प्रकाशन कार्य भी सम्पन्न हो रहा है। स्वर्गीय श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की कमनीय कल्पना को अनेक सम्पादक मुनियों, महासतियों और विद्वानों के कारण मूर्त रूप मिल गया है। यह परम आह्लाद का विषय है। छेदसूत्रों में श्रमणों की आचारसंहिता का विस्तार के निरूपण हुआ है। छेदसूत्रों में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण है। मैं बहुत ही विस्तार से इन पर लिखने का सोच रहा था, पर श्रमणसंघीय व्यवस्था का दायित्व आ जाने से उस कार्य में अत्यधिक व्यस्त रहने के कारण और अत्यधिक भीड़ भरा वातावरण होने के कारण नहीं लिख सका। इसका मुझे स्वयं को विचार है। बहुत ही संक्षिप्त में परिचयात्मक प्रस्तावना लिखी है। आशा है, सुज्ञ पाठक आगम में रहे हुए मर्म का समझेंगे। महामहिम राष्ट्रसन्त आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. और परमश्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. की असीम कृपा के फलस्वरूप ही मैं साहित्य के क्षेत्र में कुछ कार्य कर सका हूँ और स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. की प्रेरणा से आगम साहित्य पर प्रस्तावनाएं लिखकर उनकी प्रेरणा को मूर्तरूप दे सका हूँ, इसका मन में सन्तोष है। आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि सुज्ञ पाठकगण आगमों का स्वाध्याय कर अपने जीवन को धन्य बनायेंगे।
कोट, पीपाड़सिटी दिनांक २२.१०.१९९१
-उपाचार्य देवेन्द्रमुनि (प्रथम संस्करण से)