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ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राक्कथन के रूप में पीठिका है। जिसमें कल्प, व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त प्रभृति विषयों पर चिन्तन किया है। वृत्तिकार ने प्रारम्भ में अर्हत् अरिष्टनेमि को, अपने सद्गुरुवर्य तथा व्यवहारसूत्र के चूर्णिकार आदि को भक्तिभावना से विभोर होकर नमन किया है।
वृत्तिकार ने बृहत्कल्प और व्यवहार इन दोनों आगमों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का निरूपण है किन्तु उसमें प्रायश्चित्त देने की विधि नहीं है, जबकि व्यवहार में प्रायश्चित्त देने की और आलोचना करने की ये दोनों प्रकार की विधियां हैं। यह बृहत्कल्प से व्यवहार की विशेषता है। व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य तीनों का विश्लेषण करते हुए लिखा है-व्यवहारी कर्तारूप है, व्यवहार कारणरूप है और व्यवहर्तव्य कार्यरूप है। कारणरूपी व्यवहार आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत रूप से पांच प्रकार का है। चर्णिकार ने पांच प्रकार के व्यवहार को करण कहा है। भाष्यकार ने सूत्र, अर्थ, जीतकल्प, मार्ग, न्याय, एप्सितव्य, आचरित और व्यवहार इनको एकार्थक माना है।
जो स्वयं व्यवहार के मर्म को जानता हो. अन्य व्यक्तियों को व्यवहार के स्वरूप को समझाने की क्षमता रखता हो वह गीतार्थ है। जो गीतार्थ है उसके लिए व्यवहार का उपयोग है। प्रायश्चित्त प्रदाता और प्रायश्चित्त संग्रहण करने वाला दोनों गीतार्थ होने चाहिए। प्रायश्चित्त के प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और परिकुंचना, ये चार अर्थ हैं। प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के दस भेद हैं
(१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमणा, (३) तदुभय, (४) विवेक, (५) उत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) मूल, (९) अनवस्थाप्य और (१०) पारांचिक।।
इन दसों प्रायश्चित्तों के सम्बन्ध में विशेष रूप से विवेचन किया गया है। यदि हम इन प्रायश्चित्त के प्रकारों की तुलना विनियपिटक' में आयी हुई प्रायश्चित्त विधि के साथ करें तो आश्चर्यजनक समानता मिलेगी। प्रायश्चित्त प्रदान करने वाला अधिकारी या आचार्य बहश्रत व गम्भीर हो, यह आवश्यक है। प्रत्येक के सामने आलोचना का निषेध किया गया है। आलोचना और प्रायश्चित्त दोनों ही योग्य व्यक्ति के समक्ष होने चाहिए, जिससे कि वह गोपनीय रह सके।
बौद्धपरम्परा में साधुसमुदाय के सामने प्रायश्चित्त ग्रहण का विधान है। विनयपिटक में लिखा हैप्रत्येक महीने की कृष्ण चतुर्दशी और पूर्णमासी को सभी भिक्षु उपोसथागार में एकत्रित हों। तथागत बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी संघ को बताया है। अतः किसी प्राज्ञ भिक्षु को सभा के प्रमुख पद पर नियुक्त कर पातिमोक्ख का वाचन किया जाता है और प्रत्येक प्रकरण के उपसंहार में यह जिज्ञासा व्यक्त की जाती है कि उपस्थित सभी भिक्षु उक्त बातों में शुद्ध हैं? यदि कोई भिक्षु तत्सम्बन्धी अपने दोष की आलोचना करना चाहता है तो संघ उस पर चिन्तन करता है और उसकी शुद्धि करवाता है। द्वितीय और तृतीय बार भी उसी प्रश्न को दुहराया जाता है। सभी की स्वीकृति होने पर एक-एक प्रकरण आगे पढ़े जाते हैं। इसी तरह भिक्षुणियां भिक्खुनी पातिमोक्ख का वाचन करती हैं। यह सत्य है कि दोनों ही परम्पराओं की प्रायश्चित्त विधियां पृथक्-पृथक् हैं। पर दोनों में मनोवैज्ञानिकता है। दोनों ही परम्पराओं में प्रायश्चित्त करने वाले साधक के हृदय की पवित्रता, विचारों की सरलता अपेक्षित मानी है।
प्रथम उद्देशक में प्रतिसेवना में मूलप्रतिसेवना और उत्तरप्रतिसेवना ये दो प्रकार बताये हैं। मूलगुणअतिचारप्रतिसेवना प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह रूप पांच प्रकार की है।
१. विनयपिटक निदान