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________________ 'जागरह नरा णिचं, जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धि। सो सुवति ण सो धण्णं, जो जग्गति सो सया धण्णो॥' शील और लज्जा ही नारी का भूषण है। हार आदि आभूषणों से नारी का शरीर विभूषित नहीं हो सकता है। इसका भूषण तो शील और लज्जा ही है। सभा में संस्कार रहित असाधुवादिनी वाणी प्रशस्त नहीं कही जा सकती। इस प्रकार प्रस्तुत भाष्य में श्रमणों के आचार-विचार का तार्किक दृष्टि से बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया गया है। उस युग की सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक राजनीतिक स्थितियों पर भी खासा अच्छा प्रकाश पड़ता है। अनेक स्थानों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सुन्दर विश्लेषण हुआ है। जैन साहित्य के इतिहास में ही नहीं, अपितु भारतीय साहित्य में इस ग्रन्थरत्न का अपूर्व और अनूठा स्थान है। बृहत्कल्पचूर्णि इस चूर्णि का आधार मूलसूत्र व लघुभाष्य है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि का और बृहत्कल्पचूर्णि का प्रारम्भिक अंश प्रायः मिलता-जुलता है। भाषाविज्ञों का मन्तव्य है कि बृहत्कल्पचूर्णि से दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि प्राचीन है। यह सम्भव है कि ये दोनों ही चूर्णियां एक ही आचार्य की हों। प्रस्तुतः चूर्णि में पीठिका और छह उद्देशक हैं। प्रारम्भ में ज्ञान के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है। अभिधान और अभिधेय को कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न बताते हुए वृक्ष शब्द के छह भाषाओं में पर्याय दिये हैं। जिसे संस्कृत में वृक्ष कहते हैं वही प्राकृत में रुक्क्ष, मगध से ओदण, लाट में कूर, दमिलतमिल में चोर और आन्ध्र में इडाकु कहा जाता है। चूर्णि में तत्त्वार्थाधिगम, विशेषावश्यकभाष्य, कर्मप्रकृति, महाकल्प, गोविन्दनियुक्ति आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है। भाषा संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। चूर्णि में प्रारम्भ से अन्त तक लेखक के नाम का निर्देश नहीं हुआ है। बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति प्रस्तुत वृत्ति भद्रबाहु स्वामी विरचित बृहत्कल्पनियुक्ति एवं संघदासगणी विरचित लघुभाष्य पर है। आचार्य मलयगिरि पीठिका की भाष्य गाथा ६०६ पर्यन्त ही अपनी वृत्ति लिख सके। आगे उन्होंने वृत्ति नहीं लिखी है। आगे की वृत्ति आचार्य क्षेमकीर्ति ने पूर्ण की है। जैसा कि स्वयं क्षेमकीर्ति ने भी स्वीकार किया है। वृत्ति के आरम्भ में वृत्तिकार ने जिनेश्वर देव को प्रणाम कर सद्गुरुदेव का स्मरण किया है तथा भाष्यकार और चूर्णिकार के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त की है। वृत्तिकार ने बृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र के निर्माताओं के सम्बन्ध में लिखा है कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु स्वामी ने श्रमणों के अनुग्रहार्थ कल्प और व्यवहार की रचना की जिससे कि प्रायश्चित्त का व्यवच्छेद न हो। उन्होंने सूत्र के गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट १. श्री मलयगिरी प्रभवो, यां कर्तुमुपाक्रमन्त मतिमन्तः। सा कल्पशास्त्र टीका महाऽनुसन्धोयतेऽल्पधिया। -बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति, पृ. १७७
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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