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________________ क्षत्रिय, ज्ञात-कौरव और इक्ष्वाकु यह छह प्रकार के हैं। आगे उपाश्रय सम्बन्धी विवेचन में उपाश्रय के व्याघातों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। जिसमें शालिं ब्रीहि आदि सचित्त धान्य कण बिखरे हुए हों उस बीजाकीर्ण स्थान पर श्रमण को नहीं रहना चाहिए और न सुराविकट कुम्भ, शीतोदकविकटकुम्भ, ज्योति, दीपक, पिण्ड, दुग्ध, दही, नवनीत आदि पदार्थों से युक्त स्थान पर ही रहना चाहिए। सागारिक के आहारादि के त्याग की विधि, अन्य स्थान से आई हुई भोजनसामग्री के दान की विधि, सागारिक का पिण्डग्रहण, विशिष्ट व्यक्तियों के निमित्त बनाये हुए भक्त, उपकरण आदि का ग्रहण, रजोहरण ग्रहण करने की विधि बताई है। पांच प्रकार के वस्त्र-(१) जांगिक, (२) भांगिक, (३) सानक, (४) पोतक, (५) तिरीटपट्टक, पांच प्रकार के रजोहरण-(१) और्णिक, (२) औष्ट्रिक, (३) सानक, (४) वक्वकचिप्पक, (५) मुंजचिप्पकइनके स्वरूप और ग्रहण करने की विधि बताई गई है। तृतीय उद्देशक में निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के परस्पर उपाश्रय में प्रवेश करने की विधि बताई है। कृत्स्न और अकृत्स्न, भिन्न और अभिन्न वस्त्रादि ग्रहण, नवदीक्षित श्रमण-श्रमणियों की उपधि पर चिन्तन किया है। उपधिग्रहण की विधि, वन्दन आदि का विधान किया है। वस्त्र फाड़ने में होने वाली हिंसा-अहिंसा पर चिन्तन करते हुए द्रव्यहिंसा और भावहिंसा पर विचार किया है। हिंसा में जितनी अधिक राग आदि की तीव्रता होगी उतना ही तीव्र कर्मबन्धन होगा। हिंसक में ज्ञान और अज्ञान के कारण कर्मबंध, अधिकरण की विविधता से कर्मबंध में वैविध्य आदि पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ उद्देशक में हस्तकर्म आदि के प्रायश्चित्त का विधान है। मैथुनभाव रागादि से कभी भी रहित नहीं हो सकता। अत: उसका अपवाद नहीं है। पण्डक आदि को प्रव्रज्या देने का निषेध किया है। पंचम उद्देशक में गच्छ सम्बन्धी, शास्त्र स्मरण और तद्विषयक व्याघात, क्लेशयुक्त मन से गच्छ में रहने से अथवा स्वगच्छ का परित्याग कर अन्य गच्छ में चले जाने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, निःशंक और सशंक रात्रिभोजन, उद्गाल-वमन आदि विषयक दोष और उसका प्रायश्चित्त, आहार आदि के लिए प्रयत्न आदि पर प्रकाश डाला गया है। श्रमणियों के लिए विशेष रूप से विधि-विधान बताये गये हैं। षष्ठ उद्देशक में निर्दोष वचनों का प्रयोग और मिथ्या वचनों का अप्रयोग, प्राणातिपात आदि के प्रायश्चित्त, कण्टक के उद्धरण, विपर्यासजन्य दोष, प्रायश्चित्त अपवाद का वर्णन है। श्रमण-श्रमणियों को विषम मार्ग से नहीं जाना चाहिए। जो निर्ग्रन्थी विक्षिप्तचित्त हो गई है उसके कारणों को समझकर उसके देखरेख की व्यवस्था और चिकित्सा आदि के विधि-निषेधों का विवेचन किया गया है। श्रमणों के लिए छह प्रकार के परिमन्थु व्याघात माने गये हैं-(१) कौत्कुचित (२) मौखरिक (३) चक्षुर्लोल (४) तितिणिक (५) इच्छालोम (६) भिज्जानिदानकरण-इनका स्वरूप, दोष और अपवाद आदि का चिन्तन किया है। ___ कल्पस्थिति प्रकृत में छह प्रकार की कल्पस्थितियों पर विचार किया है-(१) सामायिककल्पस्थिति, (२) छेदोपस्थानीयकल्पस्थिति, (३) निर्विशमानकल्पस्थिति, (४) निर्विष्टकायिककल्पस्थिति, (५) जिनकल्पस्थिति, (६) स्थविरकल्पस्थिति। छेदोपस्थापनीयकल्पस्थिति के आचेलक्य, औद्देशिक आदि दस कल्प हैं। उसके अधिकारी और अनधिकारी पर भी चिन्तन किया गया है। प्रस्तुत भाष्य में यत्र-तत्र सुभाषित बिखरे पड़े हैं, यथा-हे मानवो! सदा-सर्वदा जाग्रत रहो, जाग्रत मानव की बुद्धि का विकास होता है, जो जागता है वह सदा धन्य है। ६५
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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