________________
चूर्णि के पश्चात् संस्कृत टीकाओं का युग आया। उस युग में अनेक आगमों पर संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखी गई। ब्रह्ममुनि (ब्रह्मर्षि) ने दशाश्रुतस्कन्ध पर एक टीका लिखी है तथा आचार्य घासीलालजी म. ने दशाश्रुतस्कन्ध पर संस्कृत में व्याख्या लिखी और आचार्यसम्राट आत्मारामजी म. ने दशाश्रुतस्कन्ध पर हिन्दी में टीका लिखी तथा आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद लिखा।
मणिविजय जी गणि ग्रन्थमाला भावनगर से दशाश्रुतस्कन्ध मूल नियुक्ति चूर्णि सहित वि. सं. २०११ में प्रकाशित हुआ।
____ सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद हैदराबाद से वीर सं. २४४५ को अमोलकऋषिजी कृत हिन्दी अनुवाद दशाश्रुतस्कन्ध का प्रकाशित हुआ।
जैन शास्त्रमाला कार्यालय सैदमिट्ठा बाजार लाहौर से सन् १९३६ में आचार्य आत्मारामजी म. कृत हिन्दी टीका प्रकाशित हुई।
संस्कृत व्याख्या व हिन्दी अनुवाद के साथ जैन शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से सन् १९६० में घासीलालजी म. का दशाश्रुतस्कन्ध प्रकाशित हुआ।
आगम अनुयोग प्रकाशन साण्डेराव से आयार-दशा के नाम से मूलस्पर्शी अनुवाद सन् १९८१ में प्रकाशित हुआ। यत्र-तत्र उसमें विशेषार्थ भी दिया गया है।
प्रस्तुत सम्पादन-आगम साहित्य के मर्मज्ञ महामनीषी मुनि श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' ने किया है। यह सम्पादन सुन्दर ही नहीं, अति सुन्दर है। आगम के रहस्य का तथा श्रमणाचार के विविध उलझे हुए प्रश्नों का उन्होंने प्राचीन व्याख्या साहित्य के आधार से तटस्थ चिन्तनपरक समाधान प्रस्तुत किया है। स्वल्प शब्दों में विषय को स्पष्ट करना सम्पादक मुनिजी की विशेषता है। इस सम्पादन में उनका गम्भीर पाण्डित्य यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। बृहत्कल्प का व्याख्यासाहित्य
बृहत्कल्पनियुक्ति-दशाश्रुतस्कन्ध की तरह बृहत्कल्पनियुक्ति लिखी गई है। उसमें सर्वप्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार कर ज्ञान के विविध भेदों पर चिन्तन कर इस बात पर प्रकाश डाला है कि ज्ञान और मंगल में कथंचित् अभेद है। अनुयोग पर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव इन सात निक्षेपों से चिन्तन किया है। जो पश्चाद्भूत योग है वह अनुयोग है अथवा जो स्तोक रूप योग है वह अनुयोग है। कल्प के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार अनुयोगद्वार हैं। कल्प और व्यवहार का अध्ययन-चिन्तन करने वाला मेधावी सन्त बहुश्रुत, चिरप्रवजित, कल्पिक, अचंचल, अवस्थित, अपरिश्रावी, विज्ञ प्राप्तानुज्ञात और भावपरिणामक होता है।
इसमें ताल-प्रलम्ब का विस्तार से वर्णन है, और उसके ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त का भी विधान है। ग्राम, नगर, खेड़, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, आदि पदों पर भी निक्षेपदृष्टि से चिन्तन किया है। जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक पर भी प्रकाश डाला है। आर्य पद पर विचार करते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, भाषा, शिल्प, ज्ञान, दर्शन, चारित्र इन बारह निक्षेपों से चिन्तन किया है। आर्यक्षेत्र में विचरण करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवृद्धि होती है। अनार्य क्षेत्रों में विचरण करने से अनेक दोषों के लगने की सम्भावना रहती है। स्कन्दकाचार्य के दृष्टान्त को देकर इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है। साथ ही ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि
६१