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सम्भावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ ग्रहण किया जाता है । सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शारपेण्टियर ने निर्युक्ति की परिभाषा इस प्रकार की है- 'निर्युक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इण्डेक्स का काम करती हैं। वे सभी विस्तारयुक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं । '
नियुक्तिकार भद्रबाहु माने जाते हैं। वे कौन थे इस सम्बन्ध में हमने अन्य प्रस्तावनाओं में विस्तार से लिखा है । भद्रबाहु की दस निर्युक्तियां प्राप्त हैं। उसमें दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति भी एक है।
दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति
प्रथम श्रुतकेवली भद्रबाहु को नमस्कार किया गया है फिर दश अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन है। प्रथम असमाधिस्थान में द्रव्य और भाव समाधि के सम्बन्ध में चिन्तन कर स्थान के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अद्धा, ऊर्ध्व, चर्या, वसति, संयम, प्रग्रह, योध, अचल, गणन, संस्थान (संघाण) और भाव इन पन्द्रह निक्षेपों का वर्णन है।
द्वितीय अध्ययन में शबल का नाम आदि चार निक्षेप से विचार किया है। तृतीय अध्ययन में आशातना का विश्लेषण है। चतुर्थ अध्ययन में 'गणि' और 'सम्पदा' का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन करते हुए कहा गया है कि गण और गुणी ये दोनों एकार्थक हैं। आचार ही प्रथम गणिस्थान है। सम्पदा के द्रव्य और भाव ये दो भेद हैं। शरीर द्रव्यसम्पदा है और आचार भावसम्पदा है। पंचम अध्ययन में चित्तसमाधि का निक्षेप की दृष्टि से विचार किया गया है। समाधि के चार प्रकार हैं। जब चित्त राग-द्वेष से मुक्त होता है, प्रशस्तध्यान में तल्लीन होता है तब भावसमाधि होती है । षष्ठ अध्ययन में उपासक और प्रतिमा पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है। उपासक के द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक और भावोपासक ये चार प्रकार हैं। भावोपासक वही हो सकता है जिसका जीवन सम्यग्दर्शन के आलोक से जगमगा रहा हो। यहां पर श्रमणोपासक की एकादश प्रतिमाओं का निरूपण है। सप्तम अध्ययन में श्रमणप्रतिमाओं पर चिन्तन करते हुए भाव श्रमणप्रतिमा के समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनप्रतिमा और विवेकप्रतिमा ये पाँच प्रकार बताये हैं। अष्टम अध्ययन में पर्युषणाकल्प पर चिन्तन कर परिवसना, पर्युषणा, पर्युपशमना, वर्षावास, प्रथम- समवसरण, स्थापना और ज्येष्ठ ग्रह को पर्यायवाची बताया है। श्रमण वर्षावास में एक स्थान पर स्थित रहता है और आठ माह तक वह परिभ्रमण करता है। नवम अध्ययन में मोहनीयस्थान पर विचार कर उसके पाप, वर्ज्य, वैर, पंक, पनक, क्षोभ, असात, संग, शल्य, अतर, निरति, धूर्त्य ये मोह के पर्यायवाची बताए गये हैं । दशम अध्ययन में जन्म-मरण के मूल कारणों पर चिन्तन कर उससे मुक्त होने का उपाय बताया गया है।
निर्युक्तिसाहित्य के पश्चात् भाष्यसाहित्य का निर्माण हुआ, किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध पर कोई भी भाष्य नहीं लिखा गया । भाष्यसाहित्य के पश्चात् चूर्णिसाहित्य का निर्माण हुआ । यह गद्यात्मक व्याख्यासाहित्य है । इसमें शुद्ध प्राकृत और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में व्याख्या लिखी गई है। चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर का नाम चूर्णिसाहित्य में विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि का मूल आधार दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति है। इस चूर्णि में प्रथम मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् दस अध्ययनों के अधिकारों का विवेचन किया गया है। जो सरल और सुगम है। मूलपाठ में और चूर्णिसम्मत पाठ में कुछ अन्तर है। यह चूर्णि मुख्य रूप से प्राकृत भाषा में है । यत्र-तत्र संस्कृत शब्दों व वाक्यों के प्रयोग भी दिखाई देते हैं।
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