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________________ दसवां उद्देशक] [४५५ कि इन सूत्रों में प्रायः धर्मकथा का वर्णन है, जिनके क्रम की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। यथावसर कभी भी इनका अध्ययन किया या कराया जा सकता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में उपलब्ध आश्रव-संवर का वर्णन गणधररचित नहीं है, किन्तु सूत्र की रचना के बाद में संकलित किया गया है। इन सूत्रों में सूचित किये गये आगमों के नाम इस प्रकार हैं (१-२) आचारांगसूत्र एवं निशीथसूत्र, (३) सूयगडांगसूत्र, (४,५, ६) दशाश्रुतस्कंधसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र, (७-८) ठाणांगसूत्र, समवायांगसूत्र, (९) भगवतीसूत्र। (१०-१४) क्षुल्लिका विमानप्रविभक्ति, महल्लिका विमानप्रविभक्ति, अंगचूलिका, वर्गचूलिका, व्याख्याचूलिका। (१५-२०) अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलन्धरोपपात, (२१-२४) उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, देवेन्द्रपरियापनिका, नागपरियापनिका, (२५) स्वप्नभावना अध्ययन, (२६) चारणभावना अध्ययन, (२७) तेजनिसर्ग अध्ययन, (२८) आशीविषभावना अध्ययन, (२९) दृष्टिविषभावना अध्ययन, (३०) दृष्टिवाद अंग। सूत्रांक १० से २९ तक के आगम दृष्टिवाद नामक अंग के ही अध्ययन थे अथवा उससे अलग नियूँढ किये गये सूत्र थे। इन सभी का नाम नंदीसूत्र में कालिकश्रुत की सूची में दिया गया है। इन सूत्रों के अंत में यह बताया गया है कि बीस वर्ष की दीक्षापर्याय तक संपूर्णश्रुत का अध्ययन कर लेना चाहिए। तदनुसार वर्तमान में ही प्रत्येक योग्य भिक्षु को उपलब्ध सभी आगमश्रुत का अध्ययन बीस वर्ष में परिपूर्ण कर लेना चाहिए। उसके बाद प्रवचनप्रभावना करनी चाहिए अथवा निवृत्तिमय साधना में रहकर स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि में लीन रहते हुए आत्मसाधना करनी चाहिए। उपर्युक्त आगमों की वाचना योग्य शिष्य को यथाक्रम से ही देनी चाहिए, इत्यादि विस्तृत वर्णन निशीथ उ. १९ में देखें। वैयावृत्य के प्रकार एवं महानिर्जरा ३७. दसविहे वेयावच्चे पण्णत्ते, तं जहा–१. आयरिय-वेयावच्चे, २. उवज्झायवेयावच्चे, ३. थेर-वेयावच्चे, ४. तवस्सि-वेयावच्चे, ५. सेह-वेयावच्चे, ६. गिलाण-वेयावच्चे, ७. साहम्मिय-वेयावच्चे, ८. कुल-वेयावच्चे, ९. गण-वेयावच्चे, १०. संघ-वेयावच्चे। १. आयरिय-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ। २. उवज्झाय-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ। ३. थेर-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ। ४. तवस्सि-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ। ५. सेह-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ। ६. गिलाण-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ। ७. साहम्मिय-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महानिज्जरे, महापज्जवसाणे भवइ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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