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[व्यवहारसूत्र १४. अन्तेवासी (शिष्य) चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-१. कोई प्रव्रज्याशिष्य है, परन्तु उपस्थापनाशिष्य नहीं है। २. कोई उपस्थापनाशिष्य है, परन्तु प्रव्रज्याशिष्य नहीं। ३. कोई प्रव्रज्याशिष्य भी है और उपस्थापनाशिष्य भी है। ४. कोई न प्रव्रज्याशिष्य है और न उपस्थापना शिष्य है। किन्तु धर्मोपदेश से प्रतिबोधित शिष्य है।
१५. पुनः अन्तेवासी चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-१. कोई उद्देशन-अन्तेवासी है, परन्तु वाचना-अन्तेवासी नहीं है। २. कोई वाचना-अन्तेवासी है, परन्तु उद्देशन-अन्तेवासी नहीं है। ३. कोई उद्देशन-अन्तेवासी भी है और वाचना-अन्तेवासी भी है। ४. कोई न उद्देशन-अन्तेवासी है और न वाचना-अन्तेवासी है। किन्तु धर्मोपदेश से प्रतिबोधित शिष्य है।
विवेचन-इन चौभंगियों में गुरु और शिष्य से सम्बन्धित निम्नलिखित विषयों का कथन किया गया है
१. दीक्षादाता गुरु और शिष्य। २. बड़ीदीक्षादाता गुरु और शिष्य। ३. आगम के मूलपाठ की वाचनादाता गुरु और शिष्य। ४. सूत्रार्थ की वाचनादाता गुरु और शिष्य। ५. प्रतिबोध देने वाला गुरु और शिष्य।
किसी भी शिष्य को दीक्षा, बड़ीदीक्षा या प्रतिबोध देने वाले पृथक्-पृथक् आचार्य निर्धारित नहीं होते हैं अर्थात् आचार्य, उपाध्याय या अन्य कोई भी श्रमण-श्रमणी गुरु की आज्ञा से किसी को भी दीक्षा, बड़ीदीक्षा या प्रतिबोध दे सकते हैं। उनको इस सूत्र के 'आयरिय' शब्द से सूचित किया गया है। इसी तरह शिष्य को भी भिन्न-भिन्न शब्दों से सूचित किया है।
एक ही भिक्षु दीक्षादाता आदि पूर्वोक्त पांचों का कार्य सम्पन्न कर सकता है अथवा कोई हीनाधिक कार्यों का कर्ता हो सकता है और कोई भिक्षु पांचों ही अवस्थाओं से रहित भिन्न अवस्था वाला अर्थात् सामान्य भिक्षु भी होता है।
उक्त पांचों कार्य सम्पन्न करने वाले साधुओं को प्रथम दो चौभंगियों में 'आयरिय' शब्द से सूचित किया है और उनके शिष्यों को बाद की दो चौभंगियों से सूचित किया है।
इस प्रकार इन चौभंगियों के ये भंग केवल ज्ञेय हैं, अर्थात् इन चौभंगियों के किसी भंग को प्रशस्त या अप्रशस्त नहीं कहा जा सकता है। स्थविर के प्रकार
१६. तओ थेरभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१. जाइ-थेरे, २. सूय-थेरे, ३. परियायथेरे।
१. सट्ठिवासजाए समणे निग्गंथे जाइ-थेरे।२. ठाण-समवायांगधरे समणे निग्गंथे सुयथेरे। ३. वीसवासपरियाए समणे निग्गंथे परियाय-थेरे।