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________________ ४४६] [व्यवहारसूत्र १०. पुनः चार जाति के पुरुष कहे गये हैं। जैसे-१. कोई धर्म को छोड़ता है, पर गण की संस्थिति अर्थात् गणमर्यादा नहीं छोड़ता है। २. कोई गण की मर्यादा भी छोड़ देता है, पर धर्म को नहीं छोड़ता है। ३. कोई गण की मर्यादा भी छोड़ देता है और धर्म भी छोड़ देता है। ४. कोई न गण की मर्यादा ही छोड़ता है और न धर्म ही छोड़ता है। ११. पुनः चार जाति के पुरुष कहे गये हैं, जैसे १. कोई प्रियधर्मा है पर दृढधर्मा नहीं है। २. कोई दृढधर्मा है, पर प्रियधर्मा नहीं है । ३. कोई प्रियधर्मा भी है और दृढधर्मा भी है। ४. कोई न प्रियधर्मा ही है और न दृढधर्मा ही है। विवेचन-इन चौभंगियों में साधक की धर्मदृढता आदि का कथन किया गया है। जिसमें निम्न विषयों की चर्चा है १. साधुवेश और धर्मभाव, २. धर्मभाव और गणसमाचारी की परम्परा, ३. धर्मप्रेम और धर्मदृढता। प्रथम चौभंगी में यह बताया गया है कि कई व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में अपने धर्मभाव और साधुवेश दोनों को नहीं छोड़ते और गम्भीरता के साथ विकट परिस्थिति को पार कर लेते हैं। यह साधक आत्माओं की श्रेष्ठ अवस्था है। शेष भंगवर्ती कोई साधक घबराकर बाह्यवेषभूषा का और संयम-आचार का परित्याग कर देता है, किन्तु धर्मभावना या सम्यक्श्रद्धा को कायम रखता है। ऐसा साधक आत्मोन्नति से वंचित रहता है, किन्तु दुर्गति का भागी नहीं होता है। कोई धर्मभाव का परित्याग कर देते हैं अर्थात् संयमाचरण और कषायों की उपशांति को छोड़ देते हैं, किन्तु साधुवेष नहीं छोड़ते हैं। कई साधक परिस्थिति आने पर दोनों ही छोड़ बैठते हैं। ये तीनों भंग वाले मार्गच्युत होते हैं। फिर भी दूसरे भंग वाला धर्म का आराधक हो सकता है। इस चौभंगी में चौथे भंग वाला साधक सर्वश्रेष्ठ है। द्वितीय चौभंगी के चौथे भंग में बताया है कि कई साधक किसी भी परिस्थिति में आगमसमाचारी और गच्छसमाचारी किसी का भी भंग नहीं करते किन्तु दृढता एवं विवेक के साथ सम्पूर्ण समाचारी का पालन करते हैं, वे श्रेष्ठ साधक हैं। शेष तीन भंग में कहे गये साधक अल्प सफलता वाले हैं। वे परिस्थितिवश किसी न किसी समाचारी से च्युत हो जाते हैं। उन भंगों की संयोजना पूर्व चौभंगी के समान समझ लेना चाहिए। तीसरी चौभंगी में धर्माचरणों की दृढता और धर्म के प्रति अन्तरंग प्रेम, इन दो गुणों का कथन धर्मदृढता स्थिरचित्तता एवं गम्भीरता की सूचक है और धर्मप्रेम प्रगाढ श्रद्धा या भक्ति से सम्बन्धित है। किसी साधक में ये दोनों गुण होते हैं, किसी में कोई एक गुण होता है और किसी में दोनों ही गुणों की मंदता या अभाव होता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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