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________________ ४३०] [व्यवहारसूत्र अवगृहीत आहार के प्रकार ४६.तिविहे ओग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा-१.जंच ओगिण्हइ, २.जं च साहरइ, ३. जं च आसगंसि (थासगंसि) पक्खिवइ, एगे एवमाहंसु। . ___एगे पुण एवमाहंसु दुविहे ओग्गहिए पण्णत्ते, तं जहा-१.जं च ओगिण्हइ, २. जंच आसगंसि ( थासगंसि) पक्खिवइ। ४६. अवगृहीत आहार तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-१. परोसने के लिए ग्रहण किया हुआ। २. परोसने के लिए ले जाता हुआ। ३. बर्तन में परोसा जाता हुआ, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। परन्तु कुछ आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि-अवगृहीत आहार दो प्रकार का कहा गया है, यथा१. परोसने के लिए ग्रहण किया जाता हुआ। २. बर्तन में परोसा जाता हुआ। विवेचन-पूर्वसूत्र में खाद्यपदार्थ के तीन प्रकार कहे गये हैं और प्रस्तुत सूत्र में दाता के द्वारा आहार को ग्रहण करने की तीन अवस्थाओं का कथन किया गया है (१) जिसमें खाद्यपदार्थ पड़ा है या बनाया गया है, उसमें से निकाल कर अन्य बर्तन में ग्रहण किया जा रहा हो। (२) ग्रहण करके परोसने के लिए ले जाया जा रहा हो। (३) थाली आदि में परोस दिया गया हो, किन्तु खाना प्रारम्भ नहीं किया हो। भाष्यकार ने यहां तीनों अवस्थाओं पर छट्ठी पिंडेषणा रूप होने का कहा है। अनेक प्रतियों में तीसरे प्रकार के लिए 'आसगंसि' शब्द उपलब्ध होता है, जिसके दो अर्थ किए जाते हैं (१) खाने के लिए मुख में डाला जाता हुआ। (२) बर्तन के मुख में डाला जाता हुआ। ये दोनों ही अर्थ यहां प्रसंगसंगत नहीं हैं क्योंकि छट्ठी पिंडेषणा में भोजन करने के लिए ग्रहण की जाने वाली तीन अवस्थाओं (तीन प्रकारों) का क्रमशः तीसरा प्रकार थाली आदि में परोसा जाता हुआ आहार ऐसा अर्थ करना ही उपयुक्त है। जो खाना प्रारम्भ करने के पूर्व की अवस्था होने से कल्पनीय भी है। किन्तु मुख में खाने के लिए डाला जाता हुआ आहार ग्रहण करना तो अनुपयुक्त एवं अव्यवहारिक है और बर्तन के मुख में डाला जाता हुआ आहार छट्ठी पिंडेषणा रूप नहीं होने से क्रमप्राप्त प्रासंगिक नहीं है। अतः सम्भावना यह है कि लिपिदोष से 'थासगंसि या थालगंसि' शब्द के स्थान पर कदाचित् 'आसगंसि' शब्द बन गया है। भगवतीसूत्र श. ११ उ. ११ पृ. १९५१ (सैलाना से प्रकाशित) में थाल और थासग शब्दों का प्रयोग किया है, जिनका क्रमशः थाली और तश्तरी (प्लेट) अर्थ किया गया है। ___ अत: यहां थासगंसि या थालगंसि शब्द को शुद्ध मान कर अर्थ स्पष्ट किया है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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