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[ व्यवहारसूत्र
रत्तिं आगच्छड़ नो आईयव्वे जाव एवं खलु एसा महल्लिया मोयपडिमा अहासुत्तं जाव आणाए अणुपालित्ता भवइ ।
४१. दो प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा- १. छोटी प्रस्रवणप्रतिमा, २. बड़ी प्रस्रवणप्रतिमा । छोटी प्रस्रवणप्रतिमा शरत्काल के प्रारम्भ में अथवा ग्रीष्मकाल के अन्त में ग्राम के बाहर यावत् राजधानी के बाहर वन में या वनदुर्ग में, पर्वत पर या पर्वतदुर्ग में अनगार को धारण करना कल्पता है। यदि वह भोजन करके उस दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो छह उपवास से इसे पूर्ण करता है । यदि भोजन किये बिना अर्थात् उपवास के दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो सात उपवास से इसे पूर्ण करता है । इस प्रतिमा में भिक्षु को जितनी बार मूत्र आवे उतनी बार पी लेना चाहिए। दिन में आवे तो पीना चाहिए, किन्तु रात में आवे तो नहीं पीना चाहिए। कृमियुक्त आवे तो नहीं पीना चाहिए, किन्तु कृमिरहित आवे तो पीना चाहिए। वीर्यसहित आवे तो नहीं पीना चाहिए, किन्तु वीर्यरहित आवे तो पीना चाहिए। रज (रक्तकण) सहित आवे तो नहीं पीना चाहिए, किन्तु रज रहित आवे तो पीना चाहिए। जितना-जितना मूत्र आवे उतना उतना सब पी लेना चाहिए, वह अल्प हो या अधिक ।
इस प्रकार यह छोटी प्रस्रवणप्रतिमा सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है।
४२. बड़ी प्रस्रवणप्रतिमा शरत्काल के प्रारम्भ में या ग्रीष्मकाल के अन्त में ग्राम के बाहर यावत् राजधानी के बाहर वन में या वनदुर्ग में, पर्वत पर या पर्वतदुर्ग में अनगार को धारण करना कल्पता है। यदि वह भोजन करके उसी दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो सात उपवास से इसे पूर्ण करता है। यदि भोजन किये बिना अर्थात् उपवास के दिन इस प्रतिमा को धारण करता है तो आठ उपवास से इसे पूर्ण करता है । इस प्रतिमा में भिक्षु को जब-जब मूत्र आवे, तब-तब पी लेना चाहिए। यदि दिन में आवे तो पीना चाहिए, किन्तु रात में आवे तो नहीं पीना चहिए यावत् इस प्रकार यह बड़ी प्रस्रवणप्रतिमा सूत्रानुसार यावत् जिनाज्ञानुसार पालन की जाती है ।
विवेचन - इस सूत्रद्विक में दो भिक्षुप्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। इन्हें केवल निर्ग्रन्थ ही स्वीकार कर सकता है। निर्ग्रन्थियां इन प्रतिमाओं को धारण नहीं कर सकतीं। क्योंकि ये प्रतिमाएं ग्रामादि के बाहर अथवा जंगल या पहाड़ों में जाकर सात-आठ दिन तक एकाकी रहकर रात-दिन कायोत्सर्ग करके पालन की जाती हैं । अतः भाष्य में इसका अधिकारी तीन संहनन वाले पूर्वधारी को बताया है।
ये प्रतिमाएं आषाढ मास या मृगशीर्ष (मिगसर ) मास में ही धारण की जाती हैं। दोनों प्रस्रवणप्रतिमाओं में से एक प्रतिमा सात रात्रि कायोत्सर्ग की होती है, उसे छोटी प्रस्रवणप्रतिमा कहा गया है । दूसरी आठ रात्रि कायोत्सर्ग की होती है, उसे बड़ी प्रस्रवणप्रतिमा कहा है।
इन दोनों प्रतिमाओं को प्रथम दिन उपवास तप करके प्रारम्भ किया जा सकता है अथवा एक बार भोजन करके भी प्रारम्भ किया जा सकर्ता है। भोजन करने वाले के एक दिन की तपस्या कम होती