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[व्यवहारसूत्र
सूत्र १
२-४
६-९
१०-१२
१३-१५
आठवें उद्देशक का सारांश स्थविर गुरु आदि की आज्ञा से शयनासनभूमि ग्रहण करना। पाट आदि एक हाथ से उठाकर सरलता से लाया जा सके, वैसा ही लाना। उसकी गवेषणा तीन दिन तक की जा सकती है और स्थविरवास के अनुकूल पाट की गवेषणा पांच दिन तक की जा सकती है एवं अधिक दूर से भी लाया जा सकता है। एकलविहारी वृद्ध भिक्षु के यदि अनेक प्रकार के औपग्रहिक उपकरण हों तो उन्हें भिक्षाचारी आदि जाते समय किसी की देखरेख में छोड़कर जाना एवं पुनः आकर उसे सूचित करके ग्रहण करना। किसी गृहस्थ का शय्या-संस्तारक आदि अन्य उपाश्रय (मकान) में ले जाना हो तो उसकी पुनः आज्ञा लेना। कभी अल्पकाल के लिए कोई पाट आदि उपाश्रय में भी छोड़ दिया हो तो उसे ग्रहण करने के लिये पुनः आज्ञा लेना, किन्तु बिना आज्ञा ग्रहण नहीं करना। क्योंकि उसे अपनी निश्रा से कुछ समय के लिए छोड़ दिया गया है। मकान पाट आदि की पहले आज्ञा लेना बाद में ग्रहण करना। कभी दुर्लभ शय्या की परिस्थिति में विवेकपूर्वक पहले ग्रहण करके फिर आज्ञा ली जा सकती है। चलते समय मार्ग में किसी भिक्षु का उपकरण गिर जाय और अन्य भिक्षु को मिल जाय तो पूछताछ कर जिसका हो उसे दे देना। कोई भी उसे स्वीकार न करे तो परठ देना। रजोहरणादि बड़े उपकरण हों, तो अधिक दूर भी ले जाना और पूछताछ करना। अतिरिक्त पात्र आचार्यादि के निर्देश से ग्रहण किए हों तो उन्हें ही देना या सुपुर्द करना। जिसे देने की इच्छा हो, उन्हें स्वतः ही नहीं देना। जिसका नाम निर्देश करके लिया हो तो आचार्य की आज्ञा लेकर पहले उसे ही देना। सदा कुछ न कुछ ऊनोदरी तप करना चाहिए। ऊनोदरी करने वाला प्रकामभोजी नहीं कहा जाता है। इस उद्देशक मेंशयनासन पाट आदि के ग्रहण करने आदि का, एकाकी वृद्ध स्थविर का, खोए गए उपकरणों का, अतिरिक्त पात्र लाने देने का, आहार की ऊनोदरी, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है।
॥आठवां उद्देशक समाप्त॥
उपसंहार १-४,६-१२
१३-१५
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