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________________ ४१२] [व्यवहारसूत्र १६. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को एक-दूसरे के लिए अधिक पात्र बहुत दूर ले जाना कल्पता है। ___ 'वह धारण कर लेगा, मैं रख लूंगा अथवा अन्य को आवश्यकता होगी तो उसे दे दूंगा।' इस प्रकार जिनके निमित्त पात्र लिया है, उन्हें लेने के लिए पूछे बिना, निमन्त्रण किये बिना, दूसरे को देना या निमन्त्रण करना नहीं कल्पता है। उन्हें पूछने व निमन्त्रण करने के बाद अन्य किसी को देना या निमन्त्रण करना कल्पता है। विवेचन-भिक्षु की प्रत्येक उपधि की कोई न कोई संख्या एवं माप निश्चित होता है। यदि किसी उपधि का परिमाण आगम में उपलब्ध नहीं होता है तो उसके विषय में गण-समाचारी के अनुसार परिमाण का निर्धारण किया जाता है। पात्र के विषय में संख्या का निर्धारण आगम में स्पष्ट नहीं है। नियुक्ति भाष्यादि में एक पात्र अथवा मात्रक सहित दो पात्र का निर्धारण मिलता है, किन्तु आगम से अनेक पात्र रखना सिद्ध होने से वर्तमान गण-समाचारी अनुसार ४-६ या और अधिक रखने की भिन्न-भिन्न परंपराएं प्रचलित हैं। जिस गण की जो भी मर्यादा है, उससे अतिरिक्त पात्र ग्रहण करने का यहां विधान किया गया है अथवा जहां उपलब्ध हो वहां से अतिरिक्त पात्र मंगाये जाते हैं। ऐसे पात्र ग्रहण करते समय जिस आचार्य-उपाध्याय का या व्यक्ति विशेष का निर्देश गृहस्थ के समक्ष किया हो, उन्हें ही पहले देना एवं निमंत्रण करना चाहिए। बाद में अन्य किसी को दिया जा सकता है। निशीथ उ. १४ सू.५ में गणी के उद्देश एवं समुद्देश से पात्र ग्रहण करने का वर्णन है और वहीं पर सूत्र ६-७ में असमर्थ को ही अतिरिक्त पात्र देने का विधान है। अत: अतिरिक्त पात्र ग्रहण करने की अनुमति देना आचार्यादि गीतार्थों के अधिकार का विषय है। विशेष वर्णन के लिए निशीथ उ. १४ का विवेचन देखें। आहार की ऊनोदरी का परिमाण १७. १. अट्ठ कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे। २. दुवालस्स कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अवड्ढोमोयरिया। ३. सोलस कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे दुभागपत्ते, अड्ढोमोयरिया। ४. चउव्वीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे तिभागपत्ते, अंसिया। ५. एगतीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे किंचूणोमोयरिया। ६. बत्तीसं कुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे पमाणपत्ते। ७. एत्तो एकेण वि कवलेण ऊणगं आहारं आहारेमाणे समणे निग्गंथे नो पकामभोइ त्ति वत्तव्यं सिया। १७. १. अपने मुखप्रमाण आठ कवल आहार करने से अल्पाहार कहा जाता है। २. अपने मुखप्रमाण बारह कवल आहार करने से कुछ अधिक अर्ध ऊनोदरिका कही जाती है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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