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________________ नौवें उद्देशक में ३० महामोहनीय स्थानों का वर्णन है। आत्मा को आवृत करने वाले पुद्गल कर्म कहलाते हैं। मोहनीयकर्म उन सब में प्रमुख है। मोहनीयकर्मबंध के कारणों की कोई मर्यादा नहीं है, तथापि शास्त्रकार ने मोहनीय कर्मबंध के हेतुभूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है। उनमें दुरध्यवसाय की तीव्रता और क्रूरता इतनी मात्रा में होती है कि कभी कभी महामोहनीयकर्म का बन्ध हो जाता है जिससे आत्मा ७० कोटा-कोटि सागरोपम तक संसार में परिभ्रमण करता है। आचार्य हरिभद्र तथा जिनदासगणी महत्तर केवल मोहनीय शब्द का प्रयोग करते हैं। उत्तराध्ययन, समवायांग और दशाश्रुतस्कन्ध में भी मोहनीयस्थान कहा है। किन्तु भेदों के उल्लेख में 'महामोहं पकुव्वइ' शब्द का प्रयोग हुआ है। वे स्थान जैसे कि त्रस जीवों को पानी में डुबाकर मारना, उनको श्वास आदि रोक कर मारना, मस्तक पर गीला चमड़ा आदि बाँधकर मारना, गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना, मिथ्या कलंक लगाना, बालब्रह्मचारी न होते हुए भी बालब्रह्मचारी कहलाना, केवलज्ञानी की निन्दा करना, बहुश्रुत न होते हुए भी बहुश्रुत कहलाना, जादू-टोना आदि करना, कामोत्पादक विकथाओं का बार-बार प्रयोग करना, आदि हैं। दशवें उद्देशक (दशा) का नाम 'आयतिस्थान' है। इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है। निदान का अर्थ है-मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्प। जब मानव के अन्तर्मानस में मोह के प्रबल प्रभाव से वासनाएं उद्भूत होती हैं तब वह उनकी पूर्ति के लि संकल्प करता है। यह संकल्पविशेष ही निदान है। निदान के कारण मानव की इच्छाएं भविष्य में भी निरन्तर बनी रहती हैं जिससे वह जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त नहीं हो पाता। भविष्यकालीन जन्म-मरण की दृष्टि से प्रस्तुत उद्देशक का नाम आयतिस्थान रखा गया है। आयति का अर्थ जन्म या जाति है। निदान का कारण होने से आयतिस्थान माना गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो आयति में से 'ति' पृथक कर लेने पर 'आय' अवशिष्ट रहता है। आय का अर्थ लाभ है। जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है उसका नाम आयति है। इस दशा में वर्णन है कि भगवान् महावीर राजगृह पधारे। राजा श्रेणिक व महारानी चेलना भगवान् के वन्दन हेतु पहुँचे। राजा श्रेणिक के दिव्य व भव्य रूप और महान् समृद्धि को निहार कर श्रमण सोचने लगे- श्रेणिक तो साक्षात् देवतुल्य प्रतीत हो रहा है। यदि हमारे तप, नियम और संयम आदि का फल हो तो हम भी इस जैसे बनें। महारानी चेलना के सुन्दर सलोने रूप व ऐश्वर्य को देखकर श्रमणियों के अन्तर्मानस में यह संकल्प हुआ कि हमारी साधना का फल हो तो हम आगामी जन्म में चेलना जैसी बनें। अन्तर्यामी महावीर ने उनके संकल्प को जान लिया और श्रमण-श्रमणियों से पूछा कि क्या तुम्हारे मन में इस प्रकार का संकल्प हुआ है? उन्होंने स्वीकृति सूचक उत्तर दिया-'हां, भगवन्! यह बात संत्य है।' भगवान् ने कहा-'निर्ग्रन्थप्रवचन सर्वोत्तम है, परिपूर्ण है, सम्पूर्ण कर्मों को क्षीण करने वाला है। जो श्रमण या श्रमणियां इस प्रकार धर्म से विमुख होकर ऐश्वर्य आदि को देखकर लुभा जाते हैं और निदान करते हैं वे यदि बिना प्रायश्चित्त किए आयु पूर्ण करते हैं तो देवलोक में उत्पन्न होते हैं और वहां से वे मानवलोक में पुनः जन्म लेते हैं। निदान के कारण उन्हें केवली धर्म की प्राप्ति नहीं होती। वे सदा सांसारिक विषयों में ही मुग्ध बने रहते हैं।' शास्त्रकार ने ९ प्रकार के निदानों का वर्णन कर यह बताया कि निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सब कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला एकमात्र साधन है। अतः निदान नहीं करना चाहिए और किया हो तो आलोचना-प्रायश्चित्त करके मुक्त हो जाना चाहिए। १. तीसं मोह-ठणाई-अभिक्खणं-अभिक्खणं आयारेमाणे वा समायारेमाणे वा मोहणिज्जताए कम्मं पकरेई। -दशाश्रुतस्कन्ध, पृ. ३२१-उपा. आत्मारामजी महाराज
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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