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________________ सातवां उद्देशक ] [ ३९७ सूत्र में अपने अस्वाध्याय में वाचना देने का विधान है तो भी वाचना देना और लेना दोनों ही समझ लेना चाहिए। क्योंकि वाचना न देने में जो अव्यवस्था संभव रहती है, उससे भी अधिक अव्यवस्था वाचना न लेने में हो जाती है और अपने अस्वाध्याय में श्रवण करने की अपेक्षा उच्चारण करना अधिक बाधक होता है । अत: वाचना देने की छूट में वाचना लेना तो स्वतः सिद्ध है। फिर भी भाष्योक्त रक्त आदि की शुद्धि करने एवं वस्त्रपट लगाने की विधि के पालन करने का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। निर्ग्रन्थी के लिए आचार्य - उपाध्याय की नियुक्ति की आवश्यकता १८. तिवासपरियाए समणे निग्गंथे तीसं वासपरियाए समणीए निग्गंथीए कप्पड़ उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए । १९. पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सट्ठिवासपरियाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए । १८. तीस वर्ष की श्रमणपर्याय वाली निर्ग्रन्थी को उपाध्याय के रूप में तीन वर्ष के श्रमणपर्याय वाले निर्ग्रन्थ को स्वीकार करना कल्पता है । १९. साठ वर्ष की श्रमणपर्याय वाली निर्ग्रन्थी को आचार्य या उपाध्याय के रूप में पांच वर्ष के श्रमणपर्याय वाले निर्ग्रन्थ को स्वीकार करना कल्पता है। । विवेचन - उद्देशक ३ सूत्र ११-१२ में साध्वियों को आचार्य, उपाध्याय एवं प्रवर्तिनी इन तीन की निश्रा से रहना आवश्यक कहा है तथा साधुओं को आचार्य, उपाध्याय इन दो की निश्रा से रहना आवश्यक कहा है। वह विधान तीन वर्ष की दीक्षापर्याय एवं चालीस वर्ष की उम्र तक के साधु-साध्वियों के लिए किया गया है । प्रस्तुत सूत्रद्विक में तीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाली साध्वी के लिए उपाध्याय की नियुक्ति और साठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाली साध्वी के लिए आचार्य की नियुक्ति करना कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि तीस वर्ष तक की दीक्षापर्याय वाली साध्वियों को उपाध्याय एवं प्रवर्तिनी के बिना रहना नहीं कल्पता है और साठ वर्ष तक की दीक्षापर्याय वाली साध्वियों को आचार्य के बिना रहना नहीं कल्पता है। भाष्य एवं टीका में उक्त वर्षसंख्या में दीक्षा के पूर्व के दस वर्ष और मिलाकर यह बताया है कि ४० वर्ष तक की उम्र वाली साध्वियों को उपाध्याय एवं प्रवर्तिनी की निश्रा बिना नहीं रहना चाहिए और ७० वर्ष तक की उम्र वाली साध्वियों को आचार्य की निश्रा बिना नहीं रहना चाहिए। उक्त वर्षसंख्या के बाद यदि पदवीधर कालधर्म को प्राप्त हो जाएँ, या गच्छ छोड़कर शिथिलाचारी बन जाएँ तो ऐसी परिस्थितियों में उन साध्वियों को आचार्य आदि की नियुक्ति करना आवश्यक नहीं रहता है। भाष्य में साध्वियों को 'लता' की उपमा दी है अर्थात् लता जिस तरह वृक्षादि के अवलंबन से ही रहती है उसी प्रकार साध्वियों को भी आचार्य के अधीन रहना संयमसमाधि - सुरक्षा के लिए आवश्यक है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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