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________________ ३९६] [व्यवहारसूत्र अतः सायंकालीन प्रतिक्रमण के पूर्ण हो जाने पर काल का (आकाश का) प्रतिलेखन करने के बाद पूरे प्रहर तक स्वाध्याय करना चाहिए। उसी प्रकार सुबह के प्रतिक्रमण की आज्ञा लेने के पूर्व रात्रि के चौथे प्रहर में स्वाध्याय करने का आगमविधान है, ऐसा समझना चाहिए। किन्तु केवल दशवै. की उन्हीं १७ गाथाओं का अस्वाध्यायकाल में स्वाध्याय करके सन्तोष मानना अनुचित परंपरा है। ___ चारों प्रहर में स्वाध्याय न करना यह ज्ञान का अतिचार है एवं लघुचौमासी प्रायश्चित्त का स्थान है। ऐसा जानकर यदि कभी स्वाध्याय न हो तो उसका प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। किन्तु सेवा या गुरुआज्ञा में कहीं समय व्यतीत हुआ हो तो चारों प्रहर में स्वाध्याय न करने पर भी प्रायश्चित्त नहीं आता है। उसी प्रकार रुग्णता आदि अन्य भी आपवादिक कारण समझ लेने चाहिए। अकारण स्वाध्याय की अपेक्षा कर विकथाओं में समय व्यतीत करने पर संयममर्यादा के विपरीत आचरण होता है एवं ज्ञान के अतिचार का सेवन होता है। शारीरिक अस्वाध्याय होने पर स्वाध्याय का विधि-निषेध १७. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अपणो असज्झाइए सज्झायं करेत्तए। कप्पइ णं अण्णमण्णस्स वायणं दलइत्तए। १७. निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थियों को स्वशरीर सम्बन्धी अस्वाध्याय होने पर स्वाध्याय करना नहीं कल्पता है, किन्तु परस्पर एक दूसरे को वाचना देना कल्पता है। विवेचन-दस औदारिक अस्वाध्याय में स्वाध्याय करने का सामान्य निषेध सूत्र १६ में किया गया है, तथापि यहाँ पुनः निषेध करने का कारण यह है कि मासिकधर्म संबंधी या अन्य व्रण संबंधी अपना अस्वाध्याय निरंतर चालू रहता है, उतने समय तक कोई भी सूत्र की वाचना चल रही हो उसे बंद करना या बीच में छोड़ना उपयुक्त नहीं है। अनेक साधु-साध्वियों की सामूहिक वाचना चल रही हो तो कभी किसी के और कभी किसी के अस्वाध्याय का कारण हो तो इस प्रकार अनेक दिन व्यतीत हो सकते हैं और उससे सूत्रों की वाचना में अव्यवस्था हो जाती है। अत: यह सूत्र उक्त मासिकधर्म और अन्य व्रण संबंधी अस्वाध्याय में आपवादिक विधान करता है कि रक्त-पीप आदि का उचित विवेक करके साधु या साध्वी परस्पर वाचना का लेन-देन कर सकते हैं। इस प्रकार यहां मासिकधर्म के अस्वाध्याय में सूत्रों की वाचना देने-लेने की स्पष्ट छूट दी गई है। किन्तु वाचना के अतिरिक्त स्वतः स्वाध्याय करना या सुनना तो सूत्र के पूर्वार्द्ध से निषिद्ध ही है। भाष्यकार और टीकाकार ने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए ऋतु-धर्मकाल में एवं व्रण आदि के समय में सूत्रों की वाचना लेने-देने की विधि का विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। साथ ही स्वाध्याय करने का तथा अविधि से वाचना लेने-देने का प्रायश्चित्त कहा है। अधिक जानकारी के लिए निशीथ. उद्दे. १९ सूत्र १५ का विवेचन देखें।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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