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________________ [ ३७५ किन्तु समुदाय में जो बहुश्रुत और बहुआगमज्ञ भिक्षु हों, उनके साथ स्वजनों के घर जाना छट्ठा उद्देशक ] कल्पता है। ज्ञातिजन के घर में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के आगमन से पूर्व चावल रंधे हुए हों और दाल पीछे से रंधे, तो चावल लेना कल्पता है, किन्तु दाल लेना नहीं कल्पता है । वहां आगमन से पूर्व दाल रंधी हुए हो और चावल पीछे से रंधें तो दाल लेना कल्पता है किन्तु चावल लेना नहीं कल्पता है। वहां आगमन से पूर्व दाल और चावल दोनों रंधे हुए हों तो दोनों लेने कल्पते हैं। और दोनों बाद में रंधे हों तो दोनों लेने नहीं कल्पते हैं। इस प्रकार ज्ञातिजन के घर भिक्षु के आगमन से पूर्व जो आहार अग्नि आदि से दूर रखा हुआ हो, वह लेना कल्पता है । जो आगमन के बाद में अग्नि से दूर रखा गया हो, वह लेना नहीं कल्पता है । विवेचन - जिस प्रकार आहार लेने के लिए जाने की सामान्य रूप से गुरु आज्ञा ली जाती है तो भी निशीथ उ. ४ के अनुसार विगययुक्त आहार ग्रहण करने के लिए आचार्यादि की विशिष्ट आज्ञा लेना आवश्यक होता है । उसी प्रकार प्रस्तुत सूत्र में भिक्षाचरी हेतु सामान्य आज्ञा प्राप्त करने के अतिरिक्त अपने पारिवारिक लोगों के घरों में गोचरी जाने के लिए विशिष्ट आज्ञा प्राप्त करने का विधान किया गया है। बहुत है, वह आज्ञा प्राप्त करने के बाद स्वयं की प्रमुखता से ज्ञातिजनों के घरों में भिक्षार्थ जा सकता है । किन्तु जो भिक्षु अबहुश्रुत है एवं अल्प दीक्षापर्याय वाला (तीन वर्ष से कम) है, वह आज्ञा प्राप्त करके भी स्वयं की प्रमुखता से नहीं जा सकता, किन्तु किसी बहुश्रुत भिक्षु के साथ ही अपने ज्ञातिजनों के घर जा सकता है । सूत्र में 'णायविहिं' शब्द का प्रयोग है। उसमें ज्ञातिजनों के घर जाने के सभी प्रयोजन समाविष्ट हैं । अतः गोचरी आदि किसी भी प्रयोजन से जाना हो तो उसके लिए इस सूत्रोक्त विधि का पालन करना आवश्यक है। उक्त विधि को भंग करने पर वह यथायोग्य तप या छेद रूप प्रायश्चित का पात्र होता है। सूत्र के उत्तरार्ध में भिक्षाचरी संबंधी विवेक निहित है। गवेषणा के ४२ दोषों में एवं आचारांगसूत्र और दशवैकालिकसूत्र के पिंडेषणा अध्ययन में सूचित अनेक दोषों में इस प्रकार का विवेक सूचित नहीं किया है । किन्तु ज्ञातिजनों के घर गोचरी जाने के विधान के साथ ही इसका विस्तृत विधान प्रस्तुत सूत्र में एवं दशा. द. ६ और दशा द. ८ में किया गया है। अतः यह एषणा का दोष नहीं है, किन्तु ज्ञातिजनों के घर से संबंधित दोष है । यहां इस सूत्र का आशय यह है कि ज्ञातिजनों के घर में भक्ति की अधिकता या अनुराग की अधिकता रहती है। इसी कारण के आचा. श्रु. २ अ. १ उ. ९ में भी इन घरों में गोचरी का समय न हुआ हो तो दूसरी बार जाने का निषेध किया है और निशीथ उ. २ में ज्ञातिजनों के घरों में दुबारा जाने पर प्रायश्चित कहा है । किन्तु ज्ञातिजनों के अतिरिक्त अन्य घरों में दुबारा जाए तो यह निषेध एवं प्रायश्चित्त नहीं है, क्योंकि एषणा के सामान्य नियमों में यह नियम नहीं है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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