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[व्यवहारसूत्र सूत्र में "थेराणं थेरभूमिपत्ताणं" शब्द प्रयोग से यह सूचित किया गया है कि वयःस्थविर होते हुए भी जिन्हें बुढ़ापा आ चुका है अर्थात् जिनकी शरीरशक्ति और इन्द्रियशक्ति क्षीण हो चुकी है, उनकी अपेक्षा ही यह आपवादिक विधान समझना चाहिए। परस्पर आलोचना करने के विधि-निषेध
१९. जे निग्गंथा य निग्गंथीओ य संभोइया सिया, नो णं कप्पइ अण्णमण्णस्स अंतिए आलोइत्तए।
अस्थि य इत्थ णं केइ आलोयणारिहे कप्पइ णं तस्स अंतिए आलोइत्तए। नत्थि य इत्थ णं केइ आलोयणारिहे एवं णं कप्पइ अण्णमण्णस्स अंतिए आलोइत्तए।
१९. जो साधु और साध्वियां साम्भोगिक हैं, उन्हें परस्पर एक दूसरे के समीप आलोचना करना नहीं कल्पता है।
यदि स्वपक्ष में कोई आलोचनासुनने योग्य हो तो उनके समीप ही आलोचना करना कल्पता है।
यदि स्वपक्ष में आलोचना सुनने योग्य कोई न हो तो साधु-साध्वी को परस्पर आलोचना करना कल्पता है।
विवेचन-बृहत्कल्पसूत्र के चौथे उद्देशक में बारह सांभोगिक व्यवहारों का वर्णन करते हुए औत्सर्गिक विधि से साध्वियों के साथ छह सांभोगिक व्यवहार रखना कहा गया है। तदनुसार साध्वियों के साथ एक मांडलिक आहार का व्यवहार नहीं होता है तथा आगाढ कारण के बिना उनके साथ आहारादि का लेन-देन भी नहीं होता है, तो भी वे साधु-साध्वी एक आचार्य की आज्ञा में होने से और एक गच्छ वाले होने से सांभोगिक कहे जाते हैं।
ऐसे सांभोगिक साधु-साध्वियों के लिए भी आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि परस्पर करना निषिद्ध है, अर्थात् साधु अपने दोषों की आलोचना, प्रायश्चित्त, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि के पास ही करें और साध्वियां अपनी आलोचना, प्रायश्चित्त प्रवर्तिनी, स्थविरा आदि योग्य श्रमणियों के पास ही करें, यह विधिमार्ग या उत्सर्गमार्ग है।
अपवादमार्ग के अनुसार किसी गण में साधु या सध्वियों में कभी कोई आलोचनाश्रवण के योग्य न हो या प्रायश्चित्त देने योग्य न हो तब परिस्थितिवश साधु स्वगच्छीय साध्वी के पास आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त कर सकता है और साध्वी स्वगच्छीय साधु के पास आलोचना आदि कर सकती है।
इस विधान से यह स्पष्ट है कि सामान्यतया एक गच्छ के साधु-साध्वियों को भी परस्पर आलोचना, प्रायश्चित्त नहीं करना चाहिए।
___ परस्पर आलोचना का दुष्फल बताते हुए भाष्य में कहा गया है कि साधु या साध्वी को कभी चतुर्थव्रत भंग संबंधी आलोचना करनी हो और आलोचना सुनने वाला साधु या साध्वी भी कामवासना से पराभूत हो तो ऐसे अवसर पर उसे अपने भाव प्रकट करने का अवसर मिल सकता है और वह कह सकता है कि तुम्हें प्रायश्चित्त तो लेना ही है तो एक बार मेरी इच्छा भी पूर्ण कर दो, फिर एक साथ