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________________ [३६७ पांचवां उद्देशक] स्थविर के लिए आचारप्रकल्प के पुनरावर्तन करने का विधान १७. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिब्भट्ठे सिया, कप्पइ तेसिं संठवेत्ताणवा, असंठवेत्ताणवाआयरियत्तंवा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत्तए वा। १८. थेराणं थेरभूमिपत्ताणं आयारपकप्पे नामं अज्झयणे परिब्भढे सिया, कप्पइ तेसिं सन्निसण्णाण वा, संतुयट्टाण वा, उत्ताणयाण वा, पासिल्लयाण वा आयारपकप्पं नामं अज्झयणं दोच्चंपि तच्चपि पडिपुच्छित्तए वा, पडिसारेत्तए वा। १७. स्थविरत्व (वृद्धावस्था) प्राप्त स्थविर यदि आचारप्रकल्प-अध्ययन विस्मृत हो जाए (और पुनः कण्ठस्थ करे या न करे) तो भी उन्हें आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है। १८. स्थविरत्वप्राप्त स्थविर यदि आचारप्रकल्प-अध्ययन विस्मृत हो जाए तो उन्हें बैठे हुए, लेटे हुए, उत्तानासन से सोये हुए या पार्श्वभाग से शयन किये हुए भी आचारप्रकल्प-अध्ययन दो-तीन बार पूछकर स्मरण करना और पुनरावृत्ति करना कल्पता है। विवेचन-पूर्व सूत्रद्विक के कहे गये विषय का ही यहां स्थविर साधु-साध्वी की अपेक्षा से कथन किया गया है। ___ भाष्य में चालीस से उनसत्तर वर्ष की वय वाले को प्रौढ कहा है और सत्तर वर्ष से अधिक वय वाले को स्थविर कहा गया है। किन्तु ठाणांगसूत्र एवं व्यवहारसूत्र उद्देशक १० आदि आगमों में ६० वर्ष की वय वाले को स्थविर कहा गया है। अतः चालीस से उनसठ वर्ष की वय वाले को प्रौढ समझना चाहिए। प्रस्तुत सूत्रद्वय में स्थविर भिक्षुओं के लिये आपवादिक विधान किया है, जो प्रौढ के लिये नहीं समझा जा सकता। अतः प्रौढ का समावेश पूर्व सूत्रद्विक में उपलक्षण से या परिशेषन्याय से समझ लेना चाहिए। क्योंकि उस अवस्था तक श्रुत कंठस्थ धारण करने की शक्ति का अधिक ह्रास नहीं होता है। स्मरणशक्ति का ह्रास साठ वर्ष की वय के बाद होना अधिक संभव है। अतः प्रौढ साधु-साध्वियों के आचारप्रकल्प विस्मरण का प्रायश्चित भी पूर्व सूत्रद्विक में अंतर्निहित है, ऐसा समझ लेना चाहिए। सत्तरहवें सूत्र में यह कहा गया है कि स्थविर भिक्षु यदि आचारप्रकल्प विस्मृत हो जाये और वह उसे पुनः उपस्थित कर सके या उपस्थित न भी कर सके तो उन्हें कोई भी पद दिया जा सकता है और पूर्वप्रदत्त पद को वे धारण भी कर सकते हैं। प्रस्तुत सूत्रों का आशय यह है कि स्थविर भिक्षु को भी आचारप्रकल्प पुनः उपस्थित करने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए, किन्तु पुनः उपस्थित न हो सकने पर उन्हें कोई भी प्रायश्चित नहीं आता है। अठारहवें सूत्र में भी यह स्पष्ट किया गया है कि वे सत्र को पुनः कण्ठस्थ रखने के लिये कभी लेटे हुए या बैठे हुए भी अन्य साधुओं से सूत्र का श्रवण कर सकते हैं या बीच के कोई स्थल विस्मृत हों तो उन्हें पूछ सकते हैं। इस प्रकार इस सूत्र में भिक्षु को वृद्धावस्था में भी स्वाध्यायप्रिय होना सूचित किया गया है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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