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________________ तीसरा उद्देशक ] [ ३२९ १७. आयरिय-उवज्झाए य आयरिय-उवज्झायत्तं निक्खिवित्ता मेहुणधम्मं पडिसेवेज्जा, तिण्णि संवच्छराणि तस्स तप्पत्तियं नो कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दिसित्तए वा धारेत वा । तिर्हि संवच्छरेहिं वीइक्कंतेहिं चउत्थगंसि संवच्छरंसि पट्ठियंसि ठियस्स उवसंतस्स, उवरयस्स, पडिविरयस्स, निव्वागारस्स, एवं से कप्पड़ आयरियत्तं वा जाव गणावच्छेइयत्तं वा उद्दित्तिए वा धारेत्तए वा । १३. यदि कोई भिक्षु गण को छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे अर्थात् मैथुनसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या उसको धारण करना नहीं कल्पता है । तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह वेदोदय से उपशान्त, मैथुन से निवृत्त, मैथुनसेवन से ग्लानिप्राप्त और विषय-वासना - रहित हो जाए तो उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है । १४. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़े बिना मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या इसे धारण करना नहीं कल्पता है । १५. यदि कोई गणावच्छेदक अपना पद छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है । १६. यदि कोई आचार्य या उपाध्याय अपने पद को छोड़े बिना मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से यावज्जीवन आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है । १७. यदि कोई आचार्य या उपाध्याय अपने पद को छोड़कर मैथुन का प्रतिसेवन करे तो उसे उक्त कारण से तीन वर्ष पर्यन्त आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है । तीन वर्ष व्यतीत होने पर और चौथे वर्ष में प्रवेश करने पर यदि वह उपशान्त, उपरत, प्रतिविरत और निर्विकार हो जाए तो उसे आचार्य यावत् गणावच्छेदक पद देना या धारण करना कल्पता है । विवेचन - आगमों में ब्रह्मचर्य की बहुत महिमा कही गई है एवं इसका पालन भी दुष्कर कहा गया है। इनके प्रमाणस्थलों के लिये नि. उ. ६ देखें । पांच महाव्रतों में भी ब्रह्मचर्य महाव्रत प्रधान है । अतः इसके भंग होने पर यहां कठोरतम प्रायश्चित्त कहा गया है । निशीथ उ. ६-७ में इस महाव्रत के अतिचार एवं अनाचारों का गुरुचौमासी प्रायश्चित्त कहा
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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