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________________ दूसरा उद्देशक] [३०५ को जावे, तब स्थविर उसे कहे 'हे आर्य! तुम अपने लिये भी साथ में ले आना और बाद में खा लेना, पी लेना।' ऐसा कहने पर उसे स्थविर के पात्रों में अपने लिए भी आहार-पानी लाना कल्पता है। वहां अपारिहारिक स्थविर के पात्र में पारिहारिक भिक्षु को अशन यावत् स्वाद्य खाना-पीना नहीं कल्पता है। किन्तु उसे अपने ही पात्र में, पलासक में, कमण्डलु में, दोनों हाथ में या एक हाथ में लेलेकर खाना-पीना कल्पता है। यह पारिहारिक भिक्षु का अपारिहारिक भिक्षु की अपेक्षा से आचार कहा गया है। विवेचन-परिहारतप करने वाले भिक्षुओं के साथ अपारिहारिक भिक्षु रहे तो उनमें से कई तो अलग-अलग आहार करते हैं और कई सम्मिलित आहार करते हैं। एक मास परिहारतप वाला भिक्षु एक मास तप पूर्ण होने तक अलग आहार करता है और पांच दिन पारणे की अपेक्षा अलग आहार करता है, उसके बाद वह एक मांडलिक आहार करता है। इसी प्रकार दो मास परिहारतप वाला भिक्षु दो मास और दस दिन तक अलग आहार करता है। तीन मास तप वाला भिक्षु तीन मास और पन्द्रह दिन, चार मास तप वाला भिक्षु चार मास और बीस दिन, पांच मास तप वाला भिक्षु पांच मास और पच्चीस दिन, छह मास तप वाला भिक्षु छह मास और तीस दिन (एक मास) तक अलग आहार करता है। इस प्रकार परिहारतप की समाप्ति के एक मास बाद पारिहारिक-अपारिहारिक सभी एक साथ आहार करते हैं। परिहारतप करने वाला भिक्षु अपना आहार स्वयं लाता है, उसे किसी से आहारादि लेना नहीं कल्पता है, यह सामान्य विधान है। यदि वह तप करता हुआ अशक्त हो जाय तो स्थविर अन्य भिक्षुओं को कहे कि 'हे आर्यो! तुम इस परिहारी भिक्षु को आहार दो या निमन्त्रण करो', ऐसा कहने पर उसे आहार दिया जा सकता है। यदि उसे घृतादि विगय की आवश्यकता हो तो वह पुनः आज्ञा मिलने पर विगय सेवन कर सकता है, किन्तु केवल आहार देने की आज्ञा से विगय सेवन नहीं कर सकता। किसी अपारिहारिक स्थविर की वैयावृत्य में रहने वाला पारिहारिक भिक्षु स्थविर के लिए और अपने लिए आहार लेने अलग-अलग जाता है, यह सामान्य विधान है। किन्तु कभी किसी कारण से स्थविर आज्ञा दे तो अपने पात्रों में अपने आहार के साथ उनके लिए भी आहारादि ला सकता है और उनके पात्रों में उनके आहार के साथ अपना आहार भी ला सकता है। ऐसा करने से उसके रूक्ष आहार के कोई विगय का लेप लग जाय तो वह स्थविर की आज्ञा से खा सकता है। सूत्र में उन भिक्षुओं के आहार करने की यह मर्यादा कही गई है कि वे परस्पर किसी के पात्र में आहार न करें, किन्तु अपने पात्र में या हाथ में लेकर फिर खावें।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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