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[व्यवहारसूत्र 'पडिग्गाहेहि अज्जो! तुमंपि पच्छा भोक्खसि वा पाहिसि वा', एवं से कप्पइ पडिग्गाहेत्तए।
तत्थ से नो कप्पइ परिहारिएणं अपरिहारियस्स पडिग्गहंसि असणं वा जाव साइमं वा भोत्तए वा पायए वा।
कप्पइ से सयंसि वा पडिग्गहंसि, सयंसि वा पलासगंसि, सयंसिवा कमण्डलंसि, सयंसि वा खुब्भगंसि, सयंसि वा पाणिंसि उद्धटु-उद्धटु भोत्तए वा पायए वा।एस कप्पो परिहारियस्स अपरिहारियाओ।
२६. अनेक पारिहारिक और अनेक अपारिहारिक भिक्षु यदि एक, दो, तीन, चार, पांच, छह मास पर्यन्त एक साथ रहना चाहें तो पारिहारिक भिक्षु पारिहारिक भिक्षु के साथ और अपारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक भिक्षु के साथ बैठकर आहार कर सकते हैं, किन्तु पारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक भिक्षु के साथ बैठकर नहीं कर सकते। वे सभी (पारिहारिक और अपारिहारिक) भिक्षु छह मास तप के और एक मास पारणे का बीतने पर एक साथ बैठकर आहार कर सकते हैं।
२७. अपारिहारिक भिक्षु को पारिहारिक भिक्षु के लिए अशन यावत् स्वादिम आहार देना या निमन्त्रण करके देना नहीं कल्पता है।
यदि स्थविर कहे कि-'हे आर्य! तुम इन पारिहारिक भिक्षुओं को यह आहार दो या निमन्त्रण करके दो।'
ऐसा कहने पर उसे आहार देना या निमन्त्रण करके देना कल्पता है।
परिहारकल्पस्थित भिक्षु यदि लेप (घृतादि विकृति) लेना चाहे तो स्थविर की आज्ञा से उसे लेना कल्पता है।
'हे भगवन् ! मुझे घृतादि विकृति देने की आज्ञा प्रदान करें।' इस प्रकार स्थविर से आज्ञा लेने के बाद उसे घृतादि विकृति का सेवन करना कल्पता है।
२८. परिहारकल्प में स्थित भिक्षु अपने पात्रों को ग्रहण कर अपने लिए आहार लेने जावे और उसे आते हुए देखकर यदि स्थविर कहे कि
'हे आर्य! मेरे योग्य आहार-पानी भी लेते आना, मैं भी खाऊंगा-पीऊंगा।' ऐसा कहने पर उसे स्थविर के लिए आहार लाना कल्पता है।
वहां अपारिहारिक-स्थविर को पारिहारिक भिक्षु के पात्र में अशन यावत् स्वाद्य खाना-पीना नहीं कल्पता है।
किन्तु उसे अपने ही पात्र में, पलासक (पात्रक) में, जलपात्र में, दोनों हाथ में या एक हाथ में ले-ले कर खाना-पीना कल्पता है। यह अपारिहारिक भिक्षु का पारिहारिक भिक्षु की अपेक्षा से आचार कहा गया है।
२९. परिहारकल्प में स्थित भिक्षु स्थविर के पात्रों को लेकर उनके लिए आहार-पानी लाने