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________________ प्रथम उद्देशक ] [ २८५ निंदेज्जा - आत्मसाक्षी से असदाचरण की निंदा करे अर्थात् अंतर्मन में खेद करे । गरहेज्जा - गुरुसाक्षी से असदाचरण की निंदा करे, खेद प्रकट करे । विउट्टेज्जा - असदाचरण से निवृत्त हो जाए । विसोहेज्जा - आत्मा को शुद्ध कर ले अर्थात् असदाचरण से पूर्ण निवृत्त हो जाए । अकरणयाए अन्मुट्ठेज्जा - उस अकृत्यस्थान को पुनः सेवन नहीं करने के लिए दृढ संकल्प करे । अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जेज्जा - उस दोष के अनुरूप तप आदि प्रायश्चित्त स्वीकार करे आलोचना से लेकर प्रायश्चित्त स्वीकार करने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया करने पर ही आत्मविशुद्धि होती है एवं तभी आलोचना करना सार्थक होता है। सूत्र में आए ग्राम आदि १६ शब्दों की व्याख्या निशीथ उ. ४ तथा बृहत्कल्प उ. १ में दी गई है, अतः वहां देखें। सूत्रोक्त आलोचना का क्रम इस प्रकार है १. आचार्य उपाध्याय, २. साधर्मिक साम्भोगिक बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ भिक्षु, ३. साधर्म अन्य साम्भोगिक बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ भिक्षु, ४. सारूपिक बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ भिक्षु, ५. पश्चात्कृत बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ श्रावक, ६. सम्यक् भावित ज्ञानी अर्थात् सम्यग्दृष्टि या समझदार व्यक्ति, ७. ग्राम आदि के बाहर जाकर अरिहंत सिद्धों की साक्षी से आलोचना करे । यहां तीन पदों में बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ नहीं है— (१) आचार्य उपाध्याय तो नियमतः बहुश्रुत बहु-आगमज्ञ ही होते हैं अतः इनके लिए इस विशेषण की आवश्यकता ही नहीं होती है । बृहत्कल्प भाष्य गा. ६९१-६९२ में कहा है कि आचार्यादि पदवीधर तो नियमतः गीतार्थ होते हैं । सामान्य भिक्षु गीतार्थ अगीतार्थ दोनों प्रकार के होते 1 (२) सम्यग्दृष्टि या समझदार व्यक्ति का बहुश्रुत होना आवश्यक नहीं है। वह तो केवल आलोचना सुनने के योग्य होता है और गीतार्थ आलोचक भिक्षु स्वयं ही प्रायश्चित्त स्वीकार करता है। (३) अरिहंत-सिद्ध भगवान् तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। उनके लिए इस विशेषण की आवश्यक नहीं है। सूत्र में 'सम्मं भावियाइं चेइयाई' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है ‘तस्याप्यभावे यत्रैव सम्यग्भावितानि - जिनवचनवासितांतः करणानि देवतानि पश्यति तत्र गत्वा तेषामंतिके आलोचयेत्।' श्रमणोपासक के अभाव में जिनवचनों से जिनका हृदय सुवासित है, ऐसे देवता को देखे तो उसके पास जाकर अपनी आलोचना करे ।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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