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________________ २८४] [व्यवहारसूत्र __उक्त योग्यतासम्पन्न सांभोगिक साधु न हो या न मिले तो असांभोगिक (सम्मिलित आहार नहीं करने वाले) बहुश्रुत आदि योग्यतासम्पन्न भिक्षु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। वह असांभोगिक भिक्षु आचारसम्पन्न होना चाहिए। यदि आचारसम्पन्न असांभोगिक साधु भी न मिले तो समान लिंग वाले बहुश्रुत आदि गुणों से सम्पन्न भिक्षु के पास आलोचना करनी चाहिए। यहां समान लिंग कहने का आशय यह है कि उसका आचार कैसा भी क्यों न हो, उसके पास भी आलोचना की जा सकती है। उक्त भिक्षु के न मिलने पर जो संयम छोड़कर श्रमणोपासकपर्याय पालन कर रहा है और बहुश्रुत आदि गुणों से सम्पन्न है तो उसके पास आलोचना की जा सकती है। यहां तक के क्रम में प्रायश्चित्त के जानकार के समक्ष आलोचना कर शुद्धि करने का कथन किया गया है। आगे के दो विकल्पों में आलोचक स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण करता है। प्रथम विकल्प में जो सम्यक् रूप से जिनप्रवचन में भावित सम्यग्दृष्टि हो अथवा जो समभाव वाला, सौम्य प्रकृति वाला, समझदार व्यक्ति हो उसके पास आलोचना कर लेनी चाहिए। द्वितीय विकल्प में बताया गया है कि कभी ऐसा व्यक्ति भी न मिले तो ग्रामादि के बाहर निर्जन स्थान में उच्चस्वर से अरिहंतों या सिद्धों को स्मृति में रखकर उनके सामने आलोचना करनी चाहिए एवं स्वयं ही यथायोग्य प्रायश्चित्त ग्रहण कर लेना चाहिए। अन्तिम दोनों विकल्प गीतार्थ भिक्षु के लिए समझना चाहिए क्योंकि, अगीतार्थ भिक्षु स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण करने के अयोग्य होता है। भाष्यटीका में इस सूत्र के विषय में इस प्रकार कहा है सुत्तमिणं कारणियं, आयरियादीण जत्थगच्छम्मि। पंचण्हं ही असति, एगो च तहिं न वसियव्वं॥ टीका-सूत्रमिदमधिकृतं कारणिकं, कारणे भवं कारणिकं, कारणे सत्येकाकीविहारविषयं इत्यर्थः । इयमत्र भावना-बहूनि खलु अशिवादीनि एकाकित्वकारणानि, ततः कारणवशतो यो जातः एकाकी तद्विषयमिदं सूत्रमिति न कश्चिद्दोषः ।अशिवादीनि तुकारणानि मुक्त्वा आचार्यादिविरहितस्य न वर्तते वस्तुं। तथा चाह-यत्र गच्छे पञ्चानामाचार्योपाध्यायगणावच्छेदिप्रवर्तिस्थविररूपाणामसद्भावो यदि वा यत्र पञ्चानामन्यतमोप्येको न विद्यते तत्र न वसतव्यम् अनेकदोषसंभवात्। इस व्याख्यांश में सूत्रोक्त विधान को सकारण एकाकी विचरण करने वाले भिक्षु की अपेक्षा होने का कहा गया है और एकाकी होने के अनेक कारण भी कहे हैं। जिसका स्पष्टीकरण सूत्र २३२५ के विवेचन में कर दिया गया है। सूत्र में प्रयुक्त आलोचना आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है आलोएज्जा-अतिचार आदि को वचन से प्रकट करे। पडिक्कमेज्जा-मिथ्या दुष्कृत दे-अपनी भूल स्वीकार करे।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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