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प्रथम उद्देशक]
[२७१ नहीं कल्पता है। जो वहां एक-दो रात्रि से अधिक रहता है उसे उस मर्यादा-उल्लंघन का छेद या तप प्रायश्चित्त आता है।
२२. परिहारकल्पस्थित भिक्षु (स्थविर की आज्ञा से) अन्यत्र किसी रुग्ण स्थविर की वैयावृत्य के लिए जावे, उस समय स्थविर उसे स्मरण दिलावे या न दिलावे अर्थात् परिहारतप छोड़कर जाने की स्वीकृति दे या न दे तो उसे मार्ग के ग्रामादि में एक रात्रि विश्राम करते हुए और शक्ति हो तो परिहारतप वहन करते हुए जिस दिशा में रुग्ण स्थविर है उस दिशा में जाना कल्पता है।
मार्ग में उसे विचरण के लक्ष्य से रहना नहीं कल्पता है किन्तु रोगादि के कारण रहना कल्पता है। कारण के समाप्त हो जाने पर यदि कोई वैद्य आदि कहे कि 'हे आर्य! तुम यहां एक-दो रात और रहो' तो उसे वहां एक-दो रात और रहना कल्पता है किन्तु एक-दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है। जो वहां एक-दोरात्रिसे अधिक रहता है उसे उस मर्यादा-उल्लंघन या छेद या तप प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन-पूर्वसूत्र में परिहारतप करने वाले भिक्षु के साथ निषद्या आदि के व्यवहार का निषेध एवं अपवाद कहा गया है।
प्रस्तुत सूत्रत्रिक में परिस्थितिवश पारिहारिक भिक्षु को स्थविर की सेवा के लिए भेजने का वर्णन किया गया है।
___पारिहारिक भिक्षु अपने प्रायश्चित्त तप की आराधना करता हुआ भी सेवा में जा सकता है अथवा तप की आराधना छोड़कर भी जा सकता है।
प्रथम सूत्र में बताया गया है कि स्थविर तप छोड़ने का कहें तो तप छोड़कर जावे। दूसरे सूत्र में बताया गया है कि स्थविर तप छोड़ने का न कहें तो प्रायश्चित्त तप वहन करते हुए जावे। तीसरे सूत्र में बताया गया है कि स्थविर कहें या न कहें, यदि शक्ति हो तो परिहारतप वहन करते हुए ही जावे और शक्ति न हो तो स्वीकृति लेकर परिहारतप छोड़कर जावे।
पारिहारिक भिक्षु तप करते हुए जावे या तप छोड़कर जावे तो विश्रांति के लिए उसे मार्ग में एक जगह एक रात्रि से अधिक नहीं रुकना चाहिए।
धर्म प्रभावना के लिए या किसी की प्रार्थना-आग्रह से वह मार्ग में अधिक नहीं रुक सकता है किन्तु स्वयं की अशक्ति या बीमारी के कारण अधिक रुकना चाहे तो वह रुक सकता है। यदि बीमारी के कारण ५-१० दिन तक रहे और उसका उपचार भी करना पडे तो ठहर सकता है और स्वस्थ होने के बाद किसी वैद्य या किसी हितैषी गृहस्थ के कहने से एक या दो दिन और भी रुक सकता है। उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है।
स्वस्थ होने के बाद स्वेच्छा से या किसी के कहने पर दो दिन से अधिक रुके तो वह मर्यादा उल्लंघन के कारण यथायोग्य तप या छेद प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
'से संतरा छेए वा परिहारे वा' इस सूत्रांश का विवेचन बृहत्कल्पसूत्र उ. २, सू. ४ में देखें।
गंतव्य स्थान का जो सीधा मार्ग संयम-मर्यादा के अनुसार हो तो उसी से वैयावृत्य के लिए जाना चाहिए किन्तु अधिक समय व्यतीत करते हुए यथेच्छ मार्ग से नहीं जाना चाहिए।