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[ व्यवहारसूत्र
जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा । २१. परिहारकप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से नो सरेज्जा कप्पड़ से निव्विसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जण्णं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तणं दिसं उवलित्तए ।
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नो से कप्पड़ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए । कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा - 'वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा । ' एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए। नो से कप्पड़ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए ।
जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा ।
२२. परिहार- कप्पट्ठिए भिक्खू बहिया थेराणं वेयावडियाए गच्छेज्जा, थेरा य से सरेज्जा वा, नोसरेज्जावा, कप्पड़ से निव्विसमाणस्स एगराइयाए पडिमाए जण्णं जण्णं दिसं अन्ने साहम्मिया विहरंति तण्णं तण्णं दिसं उवलित्तए ।
नो से कप्पइ तत्थ विहारवत्तियं वत्थए। कप्पड़ से तत्थ कारणवत्तियं वत्थए । तंसि च णं कारणंसि निट्ठियंसि परो वएज्जा, 'वसाहि अज्जो ! एगरायं वा दुरायं वा ।' एवं कप्पड़ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए । नो से कप्पड़ परं एगरायाओ वा दुरायाओ वा वत्थए ।
जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं वसइ, से संतरा छेए वा परिहारे वा ।
२०. परिहारकल्प में स्थित भिक्षु ( स्थविर की आज्ञा से ) अन्यत्र किसी रुग्ण स्थविर की वैयावृत्य (सेवा) के लिए जावे उस समय स्थविर को स्मरण रहे अर्थात् स्थविर उसे परिहारतप छोड़ने की अनुमति दे तो उसे मार्ग के ग्रामादि में एक-एक रात्रि विश्राम करते हुए जिस दिशा में साधर्मिक रुग्ण भिक्षु हो, उसी दिशा में जाना कल्पता है।
मार्ग में विचरण के लक्ष्य से ठहरना नहीं कल्पता है, किन्तु रोगादि के कारण रहना कल्पता है। कारण के समाप्त होने पर यदि कोई वैद्य आदि कहे कि ' हे आर्य! तुम यहां एक-दो रात और ठहरो' तो उसे एक-दो रात और रहना कल्पता है, किन्तु एक दो रात से अधिक रहना उसे नहीं कल्पता है। जो वहां एक-दो रात्रि से अधिक रहता है, उसे उस मर्यादा - उल्लंघन का दीक्षाछेद या तप प्रायश्चित्त आता है।
२१. परिहारकल्पस्थित भिक्षु (स्थविर की आज्ञा से) अन्यत्र किसी रुग्ण भिक्षु की वैयावृत्य के लिए जाए, उस समय यदि स्थविर उसे स्मरण न दिलावे अर्थात् परिहारतप छोड़ने की अनुमति न दे तो परिहारतप वहन करते हुए तथा मार्ग के ग्रामादि में एक रात्रि विश्राम करते हुए जिस दिशा में रुग्ण साधर्मिक भिक्षु है उस दिशा में जाना कल्पता है।
मार्ग में उसे विचरण के लक्ष्य से रहना नहीं कल्पता है । किन्तु रोगादि के कारण रहना कल्पता है। उस कारण के समाप्त हो जाने पर यदि कोई वैद्य आदि कहे कि 'हे आर्य ! तुम यहां एकदो रात और रहो' तो उसे वहां एक-दो रात और रहना कल्पता है किन्तु एक-दो रात से अधिक रहना