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________________ छट्ठा उद्देशक] [२५१ साधु-साध्वी के परस्पर कण्टक आदि निकालने का विधान ३.निग्गंथस्सय अहे पायंसिखाणू वा, कंटए वा, हीरए वा, सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तंच निग्गंथे नो संचाएइ नीहरित्तए वा, विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाइक्कमइ। __४. निग्गंथस्स य अच्छिसि पाणे वा, बीये वा, रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथे नो संचाएइ नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथी नीहरमाणी वा विसोहेमाणी वा नाडक्कमइ। ५.निग्गंथीए य अहे पायंसिखाणू वा, कंटए वा, हीरए वा, सक्करे वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाएइ नीहरित्तए वा विसोहेत्तए वा, तं निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइक्कमइ। ६. निग्गंथीए य अच्छिसि पाएं ना, बीये वा, रए वा परियावज्जेज्जा, तं च निग्गंथी नो संचाइएइ नीहरित्तए वा सोहेत्तए वा, तं निग्गंथे नीहरमाणे वा विसोहे गे वा नाइक्कमइ। ३. निर्ग्रन्थ के पैर तलुवे में तीक्ष्ण शुष्क ढूंठ, कंटक, कांच या तीक्ष्ण पाषाण-खण्ड लग जावे और उसे वह (या अन्य कोई निर्ग्रन्थ) निकालने में या उसके अंश का शोधन करने में समर्थ न हो, (उस समय) यदि निर्ग्रन्थी निकाले या शोधे तो जिनका अतिक्रमण नहीं करती है। ४. निर्ग्रन्थ की आँख में मच्छर आदि सूक्ष्म प्राणी, बीज या रज गिर जावे और उसे वह (या अन्य कोई निर्ग्रन्थ) निकालने में या उसके सूक्ष्म अंश का शोधन करने में समर्थ न हो, (उस समय) यदि निर्ग्रन्थी निकाले या शोधे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती है। ५. निर्ग्रन्थी के पैर के तलुवे में तीक्ष्ण शुष्क ढूंठ, कंटक, कांच या पाषाण खण्ड लग जावे और उसे वह (या अन्य निर्ग्रन्थी) निकालने में या उनके सूक्ष्म अंश का शोधन करने में समर्थ न हो, (उस समय) यदि निर्ग्रन्थ निकाले या शोधे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। ६. निर्ग्रन्थी की आँख में (मच्छर आदि सूक्ष्म) प्राणी, बीज या रज गिर जावे और उसे वह (या अन्य कोई निर्ग्रन्थी) निकालने में या उसके सूक्ष्म अंश का शोधन करने में समर्थ न हो, (उस समय) यदि निर्ग्रन्थ निकाले या शोधे तो जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता है। विवेचन-निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी के शरीर का और निर्गन्थी निर्ग्रन्थ के शरीर का स्पर्श न करे, यह उत्सर्गमार्ग है। किन्तु पैर में कंटक आदि लग जाने पर एवं आँख में रज आदि गिर जाने पर अन्य किसी के द्वारा नहीं निकाले जा सकने पर कण्टकादि निकालने में कुशल निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी अपवादमार्ग में एक दूसरे के कण्टकादि निकाल सकते हैं। ऐसी स्थिति में एक दूसरे के शरीर का स्पर्श होने पर भी ये प्रायश्चित्त के पात्र नहीं होते हैं किन्तु ऐसे समय में भी क्षेत्र और काल का तथा वस्त्रादि का विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक होता है एवं योग्य साक्षी का होना भी आवश्यक है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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