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[बृहत्कल्पसूत्र १. प्राणातिपात का आरोप लगाये जाने पर, २. मृषावाद का आरोप लगाये जाने पर, ३. अदत्तादान का आरोप लगाये जाने पर, ४. ब्रह्मचर्य भंग करने का आरोप लगाये जाने पर, ५. नपुंसक होने का आरोप लगाये जाने पर, ६. दास होने का आरोप लगाये जाने पर।
संयम के इन विशेष प्रायश्चित्तस्थानों का आरोप लगाकर उसे सम्यक् प्रमाणित नहीं करने वाला साधु उसी प्रायश्चित्तस्थान का भागी होता है।
विवेचन-१. कल्प-निर्ग्रन्थ का आचार, २. प्रस्तार-विशेष प्रायश्चित्तस्थान, ३. प्रस्तरण-प्रायश्चित्तस्थान-सेवन का आक्षेप लगाना।
सूत्र में छह प्रस्तार कहे गए हैं
प्रथम प्रस्तार-यदि कोई निर्ग्रन्थ किसी एक निर्ग्रन्थ के सम्बन्ध में आचार्यादि के सम्मुख उपस्थित होकर कहे कि 'अमुक निर्ग्रन्थ ने अमुक त्रस जीव का हनन किया है।'
आचार्यादि उसका कथन सुनकर अभियोग (आरोप) से सम्बन्धित निर्गन्थ को बुलावे और उससे पूछे कि क्या तुमने त्रस जीव की घात की है?'
यदि वह कहे कि 'मैंने किसी जीव की घात नहीं की है।' ऐसी दशा में अभियोग लगाने वाले निर्ग्रन्थ को अपना कथन प्रमाणित करने के लिए कहना चाहिए।
___ यदि अभियोक्ता आरोप को प्रमाणित कर दे तो जिस पर जीवघात का आरोप लगाया है, वह दोषानुरूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
यदि अभियोक्ता अभियोग प्रमाणित न कर सके तो वह प्राणातिपात किये जाने पर दिए जाने वाले प्रायश्चित्त का भागी होता है।
इसी प्रकार द्वितीय प्रस्तार मृषावाद, तृतीय प्रस्तार अदत्तादान और चतुर्थ प्रस्तार अविरतिवादब्रह्मचर्यभंग के अभियोग के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए।
___ दीक्षा देने वाले आचार्यादि के सामने किसी निर्ग्रन्थ के नपुंसक होने का अभियोग लगाना पंचम प्रस्तार 'अपुरुषवाद' है।
किसी निर्ग्रन्थ के सम्बन्ध में यह दास था या दासीपुत्र था', इस प्रकार का अभियोग लगाना षष्ठ प्रस्तार 'दासवाद' है।
अभियोक्ता और दोष-सेवी यदि एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगावें या उनमें वादप्रतिवाद बन जाए तो प्रायश्चित्त की मात्रा भी बढ़ जाती है। अर्थात् सूत्रोक्त चतुर्लघु का चतुर्गुरु प्रायश्चित्त हो जाता है।
___ यदि अभियोग चरम सीमा तक हो जाता है तो प्रायश्चित्त भी चरम सीमा का ही दिया जाता है। अर्थात् सदोष निर्ग्रन्थ को अन्तिम प्रायश्चित्त पाराञ्चिक वहन करना पड़ता है। विशेष विवरण के लिए भाष्य देखना चाहिए।