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________________ २२६] [बृहत्कल्पसूत्र ३६. जो उपाश्रय तृण या तृणपुंज से बना हो यावत् मकड़ी के जालों से रहित हो और उस उपाश्रय की छत की ऊंचाई खड़े व्यक्ति के सिर से ऊपर उठे सीधे दोनों हाथों जितनी ऊंचाई से अधिक हो, ऐसे उपाश्रय में निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थियों को वर्षावास में रहना कल्पता है। विवेचन-उपर्युक्त चार सूत्रों में से प्रथम सूत्र में यह बतलाया गया है कि जिस उपाश्रय की छत सूखे घास या सूखे धान्य आदि के पलाल भूसा-फूस आदि से बनी हो, जिसमें अण्डे न हों, त्रस जीव भी न हों, हरित अंकुर भी न हों, ओसबिन्दु भी न हों और कीड़ी-मकोड़ी के घर भी न हों, लीलन-फूलन या कीचड़ आदि भी न हो और मकड़ी का जाला आदि भी न हो। किन्तु उस छत की ऊंचाई साधु के कानों से नीचे हो तो ऐसे उपाश्रय में साधु या साध्वियों को हेमन्त और ग्रीष्म काल में भी नहीं रहना चाहिए। दूसरे सूत्र में बतलाया है उक्त प्रकार के उपाश्रय की ऊंचाई यदि साधु के कानों से ऊंची हो तो उसमें साधु और साध्वियां हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में ठहर सकते हैं। तीसरे सूत्र में यह बतलाया है कि उक्त प्रकार के शुद्ध उपाश्रय की ऊंचाई यदि रत्निमुक्तमुकुट से नीची हो तो उस उपाश्रय में वर्षावास बिताना साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता है। चौथे सूत्र में यह बताया गया है कि यदि छत की ऊंचाई रत्नि-मुक्तमुकुट से ऊंची हो तो उसमें साधु-साध्वी वर्षावास रह सकते हैं। रनि नाम हाथ का है। दोनों हाथों को ऊंचा करके दोनों अंजलियों को मिलाने पर मुकुट जैसा आकार हो जाता है, अतः उसे रत्नि-मुक्तमुकुट कहते हैं। कान की ऊंचाई से भी कम ऊंचाई वाले घास की छत वाले मकान में खड़े होने पर घास के स्पर्श से घास या मिट्टी आदि के कण बार-बार नीचे गिरते रहते हैं। अत: वहां हेमन्त व ग्रीष्म ऋतु में एक-दो रात रह कर विहार कर देना चाहिए। चातुर्मास में लम्बे समय तक रहना निश्चित्त होता है। इतने लम्बे समय में हाथ ऊंचे करने का अनेक बार प्रसंग आ सकता है, अतः हाथ ऊंचे करने पर घास का स्पर्श न हो इतने ऊंचे घास की छत वाले मकान में चातुर्मास किया जा सकता है। ___ नीची छत वाले उपाश्रय में रहने के निषेध का कारण भाष्य में यह भी बतलाया है कि साधुसाध्वियों को इतने नीचे उपाश्रय में आते-जाते झुकना पड़ेगा, भीतर भी सीधी रीति से नहीं खड़ा हो सकने के कारण वन्दनादि करने में भी बाधा आएगी। सीधे खड़े होने पर सिर के टकराने का या ऊपर रहने वाले बिच्छू आदि के डंक लगने की सम्भावना रहती है। सूत्र-पठित 'अप्पंडेसु अप्पपाणेसु' आदि पदों में अल्प' शब्द अभाव अर्थ में है। ____ बीज या मृत्तिकादि से युक्त तृणादि वाले उपाश्रय में ठहरने पर चतुर्लघुक और अनन्तकायपनक आदि युक्त उपाश्रय में ठहरने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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