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चौथा उद्देशक]
[२२३ अह पुण एवं जाणेज्जा-छिन्नावाएसुपंथेसु आउरे, झिंझिए, पिवासिए, तवस्सी, दुब्बले, किलंते, मुच्छेज्ज वा, पवडेज्ज वा, एवं से कप्पइ असणं वा जाव साइमं वा दाऊं वा अणुप्पदाऊं वा।
३१. जिस दिन परिहारतप स्वीकार करे उस दिन परिहारकल्पस्थित भिक्षु को एक घर से आहार दिलाना आचार्य या उपाध्याय को कल्पता है।
उसके बाद उसे अशन यावत् स्वादिम देना या बार-बार देना नहीं कल्पता है, किन्तु आवश्यक होने पर वैयावृत्य करना कल्पता है, यथा
___परिहारकल्प-स्थित भिक्षु को उठावे, बिठावे, करवट बदलावे, उसके मल-मूत्र, श्लेष्म, कफ आदि परठे, मल-मूत्रादि से लिप्त उपकरणों को शुद्ध करे।
___ यदि आचार्य या उपाध्याय यह जाने कि ग्लान, बुभुक्षित, तृषित, तपस्वी, दुर्बल एवं क्लान्त होकर गमनागमन-रहित मार्ग में कहीं मूर्च्छित होकर गिर जाएगा तो उसे अशन यावत् स्वादिम देना या बार-बार देना कल्पता है।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में परिहारकल्प-स्थित साधु के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह बतलाया गया है। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि जो साधु संघ के साधुओं के या गृहस्थों के साथ कलह करे, संयम की विराधना करे और आचार्य के द्वारा प्रायश्चित्त दिये जाने पर भी उसे स्वीकार न करे, ऐसे साधु को परिहारतपरूप प्रायश्चित्त दिया जाता है। उसकी विधि यह है
प्रशस्त द्रव्य क्षेत्र काल भाव में उसे परिहारतप में स्थापित करना।
तप की निर्विघ्न समाप्ति के लिए पच्चीस श्वासोच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना अथवा मन में चतुर्विंशति-स्तवन का चिन्तन करना। तत्पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव को प्रकट बोलकर चतुर्विध संघ को परिहारतप वहन कराने की जानकारी देना।
__ जिस दिन उस साधु को परिहार तप में स्थापित किया जाता है उस दिन जहां पर किसी उत्सव आदि के निमित्त से सरस आहार बना हो, वहां पर आंचार्य उसे साथ ले जाकर मनोज्ञ भक्त-पान दिलाते हैं, जिससे जनसाधारण को यह ज्ञात हो जाता है कि इसे कोई विशिष्ट तप वहन कराया जा रहा है किन्तु गच्छ से अलग करना आदि कोई असद्व्यवहार नहीं किया जा रहा है। उसके पश्चात् न आचार्य ही उसे भक्त-पान प्रदान करते हैं और न संघ के साधु ही। किन्तु जो साधु उसकी वैयावृत्य के लिए आचार्य द्वारा नियुक्त किया जाता है, वह उसके खान-पान एवं समाधि का ध्यान रखता है।
परिहार तप करने वाला साधु जब स्वयं उठने-बैठने एवं चलने-फिरने आदि कार्य करने में असमर्थ हो जाता है, तो उसकी वैयावृत्य करने वाला साधु उसकी सहायता करता है और गोचरी लाने में असमर्थ हो जाने पर भक्त-पान लाकर के उसे देता है। परिहारतपस्थित साधु तप के पूर्ण होने तक मौन धारण किये रहता है और अपने मन में अपने दोषों का चिन्तन करता हुआ तप को पूर्ण करता है।