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[बृहत्कल्पसूत्र करे, प्रतिक्रमण करे, निन्दा करे, गर्दा करे, पाप से निवृत्त हो, पाप-फल से शुद्ध हो, पुनः पापकर्म न करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो और यथायोग्य तप रूप प्रायश्चित्त स्वीकार करे।
वह प्रायश्चित्त यदि श्रुतानुसार दिया जाय तो उसे ग्रहण करना चाहिए किन्तु श्रुतानुसार न दिया जाए तो उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये।
यदि श्रुतानुसार प्रायश्चित्त दिये जाने पर भी जो स्वीकार न करे तो उसे गण से निकाल देना चाहिए।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में तीव्र कषाय एवं बहुत बड़े कलह की अपेक्षा से कथन किया गया
ऐसी स्थिति में भिक्षु का मन उद्विग्न हो जाता है, चेहरा संतप्त हो जाता है तथा बोलने का विवेक भी नहीं रहता है। अतः उसे सूत्र-निर्दिष्ट कार्यों से उपाश्रय के बाहर जाना उचित नहीं है। किन्तु कषाय भावों की उपशांति होने पर ही गोचरी आदि के लिए जाना उचित है।
सर्वप्रथम कषाय को उपशांत करना और उसके बाद आचार्य आदि जो भी बहुश्रुत वहां हों, उनके पास आलोचना (प्रायश्चित) करके कलह से निवृत्त होना आवश्यक है।
कलह से निवृत्त नहीं होने पर वह संयमभाव से भी च्युत हो जाता है और क्रमशः अधिक से अधिक प्रायश्चित्त का भागी होता है।
कभी दुराग्रह एवं अनुपशांत होने पर अनुशासन के लिये उसे आलोचना किये विना प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। यदि समझाने पर भी वह न समझे एवं प्रायश्चित्त या अनुशासन स्वीकार न करे तो उसे गच्छ से अलग कर देने का भी सूत्र में विधान किया गया है अर्थात् उसके साथ मांडलिक आहार एवं वंदना आदि व्यवहार नहीं रखा जाता है।
सूत्र में विनय, अनुशासन एवं उपशांति के विधान के साथ और न्यायसंगत सूचना की गई है-प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाला भिक्षु बहुश्रुत हो एवं प्रायश्चित्तदाता निष्पक्ष भाव न रखकर आगम विपरीत प्रायश्चित्त उसे देने का निर्णय करे तो वह उस प्रायश्चित्त को अस्वीकार कर सकता है।
सूत्र के इस निर्देश से यह स्पष्ट होता है कि सूत्रविपरीत आज्ञा किसी की भी हो, उसे अस्वीकार करने से जिनाज्ञा की विराधना नहीं होती है, किन्तु अगीतार्थ अथवा अबहुश्रुत के लिए यह विधान नहीं है। परिहार कल्प-स्थित भिक्षु की वैयावृत्य करने का विधान
____३१. परिहारकप्पट्ठियस्सणं भिक्खुस्स कप्पइ आयरिय-उवज्झायाणं तद्दिवसं एगगिहंसि पिंडवाय दवावेत्तए।
तेण परं नो से कप्पइ असणं वा जाव साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाऊं वा कप्पड़ से अन्नयरं वेयावडियं करेत्तए, तं जहा
__ अट्ठावणं वा, निसीयावणं वा, तुयट्टावणं वा, उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणाणं विगिंचणं वा विसोहणं वा करेत्तए।