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________________ [२०७ चौथा उद्देशक] छोटी दीक्षा के पश्चात् बड़ी दीक्षा देकर महाव्रतों में उपस्थापित करने का जघन्य काल सात दिन है और उत्कृष्ट काल छह मास है। ऐसे अनुपस्थापित नवदीक्षित साधु को असावधानी से आया हुआ अनेषणीय अचित्त आहार सेवन करने के लिए दिया जा सकता है। यहाँ अनेषणीय से एषणा सम्बन्धी दोष से युक्त आहार समझना चाहिए। यद्यपि नवदीक्षित अनुपस्थापित शिष्य भी संयमी गिना जाता है। तथापि पुनः उपस्थापन करना निश्चित होने से उसे उस आहार के खाने पर अलग से कोई प्रायश्चित्त नहीं आता है। अतः परठने योग्य आहार को उसे देने का सूत्र में विधान किया गया है। ___ यदि साधु-मण्डली में ऐसा कोई नवदीक्षित अनुपस्थापित शिष्य न हो तो उस दोषयुक्त आहार को न स्वयं खाए और न दूसरों को दे, किन्तु प्रासुक अचित्त स्थान पर सूत्रोक्तविधि के परठ देना चाहिए। सूत्र में 'दाउं' पद है, उसका अभिप्राय है एक बार देना और 'अणुप्पदाउं' पद का अभिप्राय है-निमन्त्रण करना या अनेक बार थोड़ा-थोड़ा करके देना। औद्देशिक आहार के कल्प्याकल्प्य का विधान १९. जे कडे कप्पट्ठियाणं, कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं। जे कडे अकप्पट्ठियाणं नो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं, कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं। कप्पे ठिया कप्पट्ठिया, अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया। १९. जो आहार कल्पस्थितों के लिए बनाया गया है, वह अकल्पस्थितों को लेना कल्पता है किन्तु कल्पस्थितों को लेना नहीं कल्पता है। जो आहार अकल्पस्थितों के लिए बनाया गया है, वह कल्पस्थितों को नहीं कल्पता है किन्तु अन्य अकल्पस्थितों को कल्पता है। __ जो कल्प में स्थित हैं वे कल्पस्थित कहे जाते हैं और जो कल्प में स्थित नहीं हैं वे अकल्पस्थित कहे जाते हैं। विवेचन-जो साधु आचेलक्य आदि दस प्रकार के कल्प में स्थित होते हैं और पंचयाम रूप धर्म का पालन करते हैं, ऐसे प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं को कल्पस्थित कहते हैं। जो आचेलक्यादि दश प्रकार के कल्प में स्थित नहीं हैं किन्तु कुछ ही कल्पों में स्थित हैं और चातुर्याम रूप धर्म का पालन करते हैं, ऐसे मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के साधु अकल्पस्थित कहे जाते हैं। ___ जो आहार गृहस्थों ने कल्पस्थित साधुओं के लिए बनाया है, उसे वे नहीं ग्रहण कर सकते हैं, किन्तु अकल्पस्थित साधु ग्रहण कर सकते हैं। इसी प्रकार जो आहार अकल्पस्थित जिन साधुओं के लिए बनाया गया है, उसे अकल्पस्थित अन्य साधु तो ग्रहण कर सकते हैं किन्तु कल्पस्थित साधु ग्रहण नहीं कर सकते हैं।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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