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[बृहत्कल्पसूत्र तंअप्पणा भुंजमाणे, अन्नेसिं वा दलमाणे, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं।
१७. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को अशन यावत् स्वादिम आहार अर्धयोजन की मर्यादा से आगे रखना नहीं कल्पता है।
___कदाचित् वह आहार रह जाय तो उस आहार को स्वयं न खाए और न अन्य को दे, किन्तु एकान्त और सर्वथा अचित्त भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन कर उस आहार को यथाविधि परठ देना चाहिए।
यदि उस आहार को स्वयं खाए या अन्य निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को दे तो उसे उद्घातिकचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन-भिक्षु अपने उपाश्रय से दो कोस दूर के क्षेत्र में अशनादि ला सकता है एवं विहार करके किसी भी दिशा में दो कोस तक आहार-पानी आदि ले जा सकता है। उसके आगे भूल से ले भी जाए तो जानकारी होने पर उसे खाना या पीना नहीं कल्पता है, किन्तु परठना कल्पता है। आगे ले जाने पर आहारादि सचित्त या दूषित तो नहीं हो जाते हैं, किन्तु यह आगमोक्त क्षेत्र-सीमा होने से इसका पालन करना आवश्यक है।
दो कोस के चार हजार धनुष होते हैं, जिसके चार माइल या सात किलोमीटर लगभग क्षेत्र होता है। इतने क्षेत्र से आगे आहार-पानी एवं औषध-भेषज कोई भी खाद्यसामग्री नहीं ले जानी चाहिए। अनाभोग से ग्रहण किये अनेषणीय आहार की विधि
१८. निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पविद्वेणं अन्नयरे अचित्ते अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिगाहिए सिया।
अस्थि य इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पइ से तस्स दाउं वा अणुप्पदाउं वा।
नत्थि य इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अन्नेसिंदावए, एगन्ते बहुफासए पएसे पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया।
१८. आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट निर्ग्रन्थ के द्वारा कोई दोषयुक्त अचित्त आहारपानी ग्रहण हो जाय तो
वह आहार यदि कोई वहां अनुपस्थापित शिष्य हो तो उसे देना या एषणीय आहार देने के बाद में देना कल्पता है।
यदि कोई अनुपस्थापित शिष्य न हो तो उस अनेषणीय आहार को न स्वयं खाए और न अन्य को दे किन्तु एकान्त और अचित्त प्रदेश का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर यथाविधि परठ देना चाहिए।
विवेचन-इत्वरिक दीक्षा देने के पश्चात् जब तक यावज्जीवन की दीक्षा नहीं दी जाती है, तब तक उस नवदीक्षित साधु को 'अनुपस्थापित शैक्षतर' कहा जाता है।