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________________ चौथा उद्देशक] [१९९ ७. छेद-अनेक व्रतों की विराधना करने वाले और बिना कारण अपवादमार्ग का सेवन करने वाले साधु की दीक्षा का छेदन करना 'छेद प्रायश्चित्त' है। यह प्रायश्चित्त भी छह मास का होता है। इससे अधिक प्रायश्चित्त देना आवश्यक होने पर मूल (नई दीक्षा का) प्रायश्चित्त दिया जाता है। ८.मूल-जो साधु-साध्वी जानबूझ कर द्वेषभाव से किसी पंचेन्द्रिय प्राणी का घात कर उसी प्रकार का मृषावाद आदि पापों का अनेक बार सेवन करे और स्वतः आलोचना न करे तो उसकी पूर्वगृहीत दीक्षा का समूल छेदन करना 'मूल प्रायश्चित्त' है। ऐसे प्रायश्चित्त वाले को पुनः दीक्षा ग्रहण करना आवश्यक होता है। ९. अनवस्थाप्य–हिंसा, चोरी आदि पाप करने पर जिसकी शुद्धि मूल प्रायश्चित्त से भी सम्भव न हो, उसे गृहस्थवेष धारण कराये बिना पुनः दीक्षित न करना 'अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त' है। इसमें अल्प समय के लिये भी गृहस्थवेष धारण कराना आवश्यक होता है। १०. पाराञ्चिक-अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त से भी जिसकी शुद्धि सम्भव न हो, ऐसे विषय कषाय या प्रमाद की तीव्रता से दोष सेवन करने वाले को जघन्य एक वर्ष और उत्कृष्ट बारह वर्ष तक गृहस्थवेश धारण कराया जाता है एवं साधु के सब व्रत-नियमों का पालन कराया जाता है। उसके पश्चात् नवीन दीक्षा दी जाती है, उसे पाराञ्चिक प्रायश्चित्त कहते हैं। पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के स्थान २. तओ पारंचिया पण्णत्ता, तं जहा . १. दुढे पारंचिए, २. पमत्ते पारंचिए, ३. अन्नमन करेमाणे पारंचिए । पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य ये तीन कहे गए हैं, यथा१. दुष्ट पाराञ्चिक, २. प्रमत्त पाराञ्चिक, ३. परस्पर मैथुनसेवी पाराञ्चिक। विवेचन-पाराञ्चिक शब्द का निरुक्त है-जिस प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्ध किया हुआ साधु संसार समुद्र को पार कर सके। अथवा प्रायश्चित्त के दस भेदों में जो अन्तिम प्रायश्चित्त है और सबसे उत्कृष्ट है-उसे पाराञ्चिक प्रायश्चित्त कहते हैं। __ इस सूत्र में प्रायश्चित्त के तीन स्थान कहे गये हैं। उनमें प्रथम दुष्ट पाराञ्चिक है। इसके दो भेद हैं-कषायदुष्ट और विषयदुष्ट। १. कषायदुष्ट-जो क्रोधादि कषायों की प्रबलतावश किसी साधु आदि का घात कर दे वह कषायदुष्ट है। २. विषयदुष्ट-जो इन्द्रियों की विषयासक्ति से साध्वी और स्त्रियों में आसक्त हो जाय और उनके साथ विषयसेवन करे, उसे विषयदुष्ट कहते हैं। प्रमत्त पाराञ्चिक पांच प्रकार के होते हैं१. मद्य-प्रमत्त-मदिरा आदि नशीली वस्तुओं के सेवन करने वाले मद्य-प्रमत्त कहे गए हैं। २. विषय-प्रमत्त-इन्द्रियों के विषय-लोलुपी विषय-प्रमत्त कहे गए हैं। ३. कषाय-प्रमत्त-कषायों की प्रबलता वाले कषाय-प्रमत्त कहे गए हैं।
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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