________________
चौथा उद्देशक
अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के स्थान
१. तओ अणुग्घाइया पण्णत्ता, तं जहा
१. हत्थकम्मं करेमाणे, २. मेहुणं पडिसेवमाणे, ३. राइभोयणं भुंजमाणे। १. अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के योग्य ये तीन कहे गये हैं, यथा
१. हस्तकर्म करने वाला, २. मैथुन सेवन करने वाला, ३. रात्रिभोजन करने वाला।
विवेचन-जिस दोष की सामान्य तप से शुद्धि की जा सके, उसे उद्घातिक प्रायश्चित्त कहते हैं और जिस दोष की विशेष तप से ही शुद्धि की जा सके, उसे अनुद्घातिक प्रायश्चित्त कहते हैं।
हस्तकर्म करने वाला, स्त्री के साथ संभोग करने वाला और रात्रिभोजन करने वाला भिक्षु महापाप करने वाला होता है, क्योंकि इनमें से दो ब्रह्मचर्य महाव्रत को भंग करने वाले हैं और अन्तिम रात्रिभक्तविरमण नामक छठे व्रत को भंग करने वाला है। अतः ये तीनों ही अनुद्घातिक प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं।
भगवतीसूत्र श. २५, उ. ६, सू. १९५ में तथा उववाईसूत्र ३० में प्रायश्चित्त के दस भेद बताये गये हैं
१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३, तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य, १०. पाराञ्चिक। इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. आलोचना-स्वीकृत व्रतों को यथाविधि पालन करते हुए भी छद्मस्थ होने के कारण व्रतों में जो अतिक्रम आदि दोष लगा हो, उसे गुरु के सम्मुख निवेदन करना।
२. प्रतिक्रमण-अपने कर्तव्य का पालन करते हुए भी भूलें होती हैं उनका 'मिच्छा मे दुक्कडं होज्जा' उच्चारण कर अपने दोष से निवृत्त होना।
३. तदुभय-मूलगुण या उत्तरगुणों में लगे अतिचारों की निवृत्ति के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना।
४. विवेक-गृहीत भक्त-पान आदि के सदोष ज्ञात होने पर उसे परठना।
५. व्युत्सर्ग-गमनागमन करने पर, निद्रावस्था में बुरा स्वप्न आने पर, नौका आदि से नदी पार करने इत्यादि प्रवृत्तियों के बाद निर्धारित श्वासोच्छ्वास काल-प्रमाण काया का उत्सर्ग करना अर्थात् खड़े होकर ध्यान करना।
६. तप-प्रमाद-विशेष से अनाचार के सेवन करने पर गुरु द्वारा दिये गये तप का आचरण करना।