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[बृहत्कल्पसूत्र से दुहओ वि अइक्कममाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं।
३३. ग्राम यावत् राजधानी के बाद शत्रुसेना का पडाव हो तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को भिक्षाचर्या के लिये बस्ती में जाकर उसी दिन लौटकर आना कल्पता है किन्तु उन्हें वहां रात रहना नहीं कल्पता है।
जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी वहां रात रहते हैं या रात रहने वाले का अनुमोदन करते हैं, वे जिनाज्ञा और राजाज्ञा दोनों का अतिक्रमण करते हुए चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त को प्राप्त होते हैं।
विवेचन-सेना के पडाव के निकट से साधु को गमनागमन करने का आचा. श्रु. २, अ. ३ में निषेध किया है और यहां विहारादि में अत्यन्त आवश्यक होने पर सेना के पडाव को पार कर ग्रामादि के भीतर गोचरी जाने का विधान है।
___ इसका तात्पर्य यह है कि सेना के पडाव के समय में जहां भिक्षाचरों को केवल भिक्षा लेकर. आने की ही छूट हो और अन्यों के लिये प्रवेश बन्द हो तब भिक्षु को भिक्षा लेकर के शीघ्र ही लौट जाना चाहिये, अन्दर नहीं ठहरना चाहिये। अन्दर ठहरने पर राजाज्ञा एवं जिनाज्ञा का उल्लंघन होने से वह प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अवग्रहक्षेत्र का प्रमाण
३४. से गामंसि वा जाव सन्निवेसंसि वा कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सव्वओ समंता सक्कोसं जायेणं उग्गहं ओगिण्हित्ताणं चिट्ठित्तए।
३४. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को ग्राम यावत् सन्निवेश में चारों ओर से एक कोस रहित एक योजन का अवग्रह ग्रहण करके रहना कल्पता है अर्थात् एक दिशा में ढाई कोस जाना-आना कल्पता
विवेचन-उपाश्रय से किसी भी एक दिशा में भिक्षु को अढाई कोस तक जाना-आना कल्पता है, इससे अधिक क्षेत्र में जाना-आना नहीं कल्पता है।
यद्यपि गोचरी के लिये भिक्षु को दो कोस तक ही जाना कल्पता है तथापि ढाई कोस कहने का आशय यह है कि दो कोस गोचरी के लिये गये हुए भिक्षु को वहां कभी मल-मूत्र की बाधा हो जाए तो बाधानिवारण के लिये वहां से वह आधा कोस और आगे जा सकता है। तब कुल अढाई कोस एक दिशा में गमनागमन होता है। पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण यों दो-दो दिशाओं के क्षेत्र का योग करने पर पांच कोस अर्थात् सवा योजन का अवग्रहक्षेत्र होता है। उसे ही सूत्र में सकोस योजन अवग्रहक्षेत्र कहा है।