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________________ तीसरा उद्देशक ] यदि फिर भी न देना चाहे तो उसे पारितोषिक आदि दिलाने का आश्वासन दे । यदि वह राज्याधिकारी हो और मांगने पर भी न दे तो उसके लिए साधु यथोचित उपायों से जहां तक सम्भव हो उसे वापस लाने का प्रयत्न करे। [ १९१ यदि फिर भी वह न दे तो ऊपर के अधिकारियों तक सूचना भिजवाकर वापस मांगने का प्रयत्न करे । फिर भी न मिले या ले जाने वाले का पता न लगे तो जिस गृहस्थ के यहां से वह शय्यासंस्तारकादि लाया है उसको उसके अपहरण की बात कहे । यदि वह किसी प्रकार से उसे वापस ले आवे तो उसको दूसरी बार आज्ञा लेकर उपयोग में । यदि उसे भी वह न मिले तो दूसरे शय्या संस्तारक की याचना करे । यदि वह साधु ऐसा यथोचित विवेक-अन्वेषण नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का पात्र होता है। अन्त में भाष्यकार ने यह भी लिखा है कि शय्या - संस्तारक का स्वामी राजा के द्वारा देश से निकाल दिया गया हो या वह अपने कुटुम्ब परिवार को लेकर अन्यत्र चला गया हो, अथवा कालधर्म प्राप्त हो गया हो, अथवा रोग, वृद्धावस्था आदि के कारण साधु स्वयं गवेषणा करने में असमर्थ हो या इसी प्रकार का और कोई कारण हो जाए तो वैसी अवस्था में खोए गए शय्या - संस्तारक की गवेषणा नहीं करता हुआ भी साधु प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता है। आगन्तुक श्रमणों को पूर्वाज्ञा में रहने का विधान २८. जद्दिवसं च णं समणा निग्गंथा सेज्जासंथारयं विप्पजहंति, तद्दिवसं च णं अवरे समणा निग्गंथा हव्वमागच्छेज्जा, सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठा अहालंदमवि उग्गहे । २९. अत्थि या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्नय अचित्ते परिहरणारिहे, सच्चेव उग्गहस्स . पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठा, अहालंदमवि उग्गहे । २८. जिस दिन श्रमण-निर्ग्रन्थ शय्या-संस्तारक छोड़कर विहार कर रहे हों उसी दिन या उसी समय दूसरे श्रमण-निर्ग्रन्थ आ जावें तो उसी पूर्व ग्रहीत आज्ञा से जितने भी समय रहना हो, शय्यासंस्तारक को ग्रहण करके रह सकते हैं। २९. यदि उपयोग में आने योग्य कोई अचित्त उपकरण उपाश्रय में हो तो उसका भी उसी पूर्व की आज्ञा से जितने काल रहना हो, उपयोग किया जा सकता है। विवेचन - जिस उपाश्रय में साधु मासकल्प या वर्षाकल्प तक की आज्ञा लेकर रहे हैं, वहां से वे जिस दिन विहार करें उसी दिन अन्य साधु उस उपाश्रय में ठहरने के लिए आ जावें तो वे 'यथालन्दकाल' तक उपाश्रय के स्वामी की आज्ञा लिए बिना ठहर सकते हैं, उनके लिए उतने काल तक पूर्व में रहने वाले साधुओं के द्वारा गृहीत अवग्रह ही माना जाएगा। पहले ठहरे हुए साधुओं के द्वारा ली गई आज्ञा में उनके साधर्मिक साधुओं के ठहरने की आज्ञा निहित रहती है। अतः उनके साथ कोई भी साधु कभी भी आकर ठहर सकते हैं। उनके लिये पुनः
SR No.003463
Book TitleTrini Chedsutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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